Monday 8 August 2016

।। प्रतीक्षा ।।

सवेरा सा पसरे है चारो तरफ़
ज़िन्दगी आज कुछ नयी सी रंग है

तू छेड़े सी मुझको है किरणों से अपनी
जागी सी तुझमे कैसी उमंग है

मैं देखूँ जिधर भी नयी सी लगे तू
तू रंगो में गीली सौंधी मलंग है

ले चल तू अपने मुझे साथ लेके,
मैं जी लूँ घड़ी भर तेरी पतंग है ।।



                                                       तेरे संग चलने का जी यूँ करे,
                                                       मैं जीने को तरसा हूँ कबसे परे

                                                       तू आशा की आहें जो मुझमे भरे,
                                                       मैं जी जाऊँ तुझमे कहीं बाँवरे

                                                       मेरी मस्तियाँ मुझसे रूठी हैं कबसे
                                                       उसे आज देजा तो जीलूँ मैं फिरसे

                                                       तू भरदे मुझे आज ख़ाली हूँ कबसे
                                                       जीवन के कोंपल पनप जाये मुझसे


आजा तू जीवन में मेरी कमी है
मैं उत्सुक हूँ तुझमें कैसी तरंग है

ले चल तू अपने मुझे साथ लेके,
मैं जी लूँ घड़ी भर तेरी पतंग है ।।



                                                    भटकते हुए अब तो अरसा हुआ है
                                                    ना राहें मिली हिय ये तरसा हुआ है

                                                   गहरा हुआ है ये परछाईयों में
                                                   तेरे आगमन से ये हर्षा हुआ है

                                                   उम्मीद में तेरी जा ये फंसा है
                                                   तेरी बातों से इसकी ऐसी दशा है

                                                  तू इसको दिखाये जो सपनो के बादल
                                                  तो बारिश को पाने तेरे संग चला है



अकेला मैं भीगूँ जो तू साथ ना हो
जीवन के मेरे सब अनोखे ढंग हैं

ले चल तू अपने मुझे साथ लेके,
मैं जी लूँ घड़ी भर तेरी पतंग है ।।


                                                     
                                                          तुझे सब पता है मेरी जो दशा है
                                                          तू गुमसुम है फिर भी ना बोले कभी

                                                          तू कहने को हमराही संग चल रही है
                                                          ऐ जीवन ! तेरी ये अदाएँ सभी

                                                          बता दे तू मुझको कहाँ ले चलेगी
                                                          जीने को तुझ संग मैं चल लूँ अभी

                                                          तेरे आसरे पे मैं ठहरा हूँ कबसे
                                                          तुझसे ही उम्मीद मेरे सभी



अकेले सफ़र मुझसे काटा ना जाये
जो तू राह में है तो सब रंग है

ले चल तू अपने मुझे साथ लेके,
मैं जी लूँ घड़ी भर तेरी पतंग है ।।  


                                                        तेरे साथ बीते पलों को संजोये
                                                        तेरी राहें ढुँढू मैं गलियों में खोये

                                                        ना जाने की किस छोर पे तू मिलेगी
                                                        हर छोर पे इक जनम मैंने खोये

                                                        ऐ जीवन ! ये कब तक सज़ा मेरी होगी
                                                        चलूँ साथ मैं कब रज़ा तेरी होगी

                                                        इस छोर की भी कहानी ख़तम है
                                                        तेरे आश्रय से विदाई कब होगी


प्रतीक्षा करूँ मैं तेरे आगमन की
दिखाये जो तूने स्वप्न - आनंद है

ले चल तू अपने मुझे साथ लेके,
मैं जी लूँ घड़ी भर तेरी पतंग है ।।
                                                     
                                           
                                                       

                                                       -द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

                                                        दिनाँक - ०८ / ०८ / २०१६
                                                                                                           







Saturday 6 August 2016

।। अंतर ।।

आदी हूँ तेरे आकर्षण का, या प्रेम में तेरे डूबा हूँ,

दोनों बातों में अंतर क्या, यदि प्रेम मैं तुझसे करता हूँ।।


जीलूँ तुझको मैं जीवन भर, 

औ रहूँ सदा आदि ही तेरा,

जो छूटे तुझसे प्रेम-लगन, 

मन हो जाये प्रस्तर का मेरा।

है तुझको चुना बस जीवन में, 

तेरा ही रहे अंतर ये मेरा, 

मैं जियूँ सहस्त्र वरष तक यूँ , 

सदियों तक तुझसे रहूँ जुड़ा। 

हिय-तरंग बहे मेरी तुझसे, आकर्षित ऐसे होता हूँ। 

दोनों बातों में अंतर क्या, यदि प्रेम मैं तुझसे करता हूँ।।


आदी होने की लत जो लगी, 

उसको कैसे मैं और कहूँ,

वो प्रेम में पनप गया तेरी, 

उसे प्रेम-स्वरुप का शौर्य कहूँ।

ये लत ऐसे ना जाएगी, 

मैं प्रीत-सरोवर में बहलूँ,

तेरे ह्रदय को मेरा ज्ञात लगे,

जो प्रीत मैं जीवन भर करलूँ। 
तुम पास रहो या दूरी दो, मैं जीवन तुझको देता हूँ। 

दूरी-समीप में अंतर क्या, यदि प्रेम मैं तुझसे करता हूँ।।


जग से दूरी कुछ बात नहीं,

तुझसे दूरी अभिशाप सी है,

जिता हूँ जीवन तुझ बिन जो,

जीवन मेरा उपहास ही है। 

आशावादी इस मन में फिर,

तुझसे मिलने की मिठास सी है,

इस वेश जो ये हो न सका,

तो किसी और एहसास में है। 

तू अपनाये या विछोह करे, मैं जीव समर्पित करता हूँ। 

दोनों बातों में अंतर क्या, यदि प्रेम मैं तुझसे करता हूँ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - ०६ /०८ /२०१६ {जीवन का एक महत्वपूर्ण दिवस  :-)}




















Friday 29 July 2016

।। मिला मुझको तुझमे ही जीवन मिला है ।।

तेरे साथ जीने को जन्मा हूँ प्रियतम,

जो तू न हो संग में तो दुनिया का क्या है ?

सफ़र ना कटेगा अकेले में मुझसे,

जो तू हो सफ़र में तो रस्ते का क्या है ?

चलूँगा मैं संग में ही तेरे मुसाफ़िर, मिला मुझको तुझमे ही जीवन मिला है।


गीले - शिक़वे जीवन के आधार से हैं,

चढ़ते - उतरते ये पतवार से हैं।

बदलने की क्षमता ना तुझमे ना मुझमे,

ये स्थिर प्रकीर्ति के व्यवहार से हैं।

तेरे साथ होने से रस्ता खुला है, मिला मुझको तुझमे ही जीवन मिला है।


तेरे हाथों में दी है जीवन की डोरी,

हिय से बंधी जो तेरे संग मेरी।

महशुस करले ओ मेरी चकोरी !

मैं चँदा हूँ तेरा जो लूँ तेरी फेरी।

जीवन जो संग बढ़ने का सिलसिला है, मिला मुझको तुझमे ही जीवन मिला है।


साथी मेरे मैं तुझे क्या बताऊँ,

तेरे साथ ही अपनी दुनिया मैं पाऊँ।

जो जीने का मतलब मुझे कुछ पता है,

वो तेरी ही छाया में जीता मैं जाऊँ।

उन राहों का क्या जो मैं तुझसे ना जाऊँ,

मैं खुदको सदा तेरी गलियों में पाऊँ।

जीवन का आधार तुझसे चला है, मिला मुझको तुझमे ही जीवन मिला है।


तेरी मुझसे क्यूँ ये नाराज़गी है,

करी मैंने तुझसे ही की दिल्लगी है।

साँसों की मेरे तुही बन्दगी है,

जो है तू तो मुझमे चली जिंदगी है।

तेरा प्रेम मेरी रगों में बहा है, मिला मुझको तुझमे ही जीवन मिला है।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - २९. ०७. २०१६ 








Saturday 23 July 2016

।। मै प्रेम - पथिक बस चल निकला ।।

मैं जड़ सुमेरु -सा अडिग अचल, प्रस्तर - सम  मेरा ह्रदय हुआ

जब बात विछोह की तूने कही, मन मेरा व्याधित - विकल हुआ

अब बरसूँ या तब बरसूँ मैं, मेरा मर्म कहूं मैं किसे भला

सारे जग से ही विरक्त कहीं, मैं राह में ऐसे हूँ निकला ।।


आ चल तू मेरे साथ चलें, उस दूर क्षितिज पे चल निकलें

जहाँ तेरी - मेरी डगर मिले, उस चौराहे पे फिर से मिलें

कुछ बात करेंगे मिल करके, ख़ामोशी- सी यूँ पिरोयी है

तेरी मधुर ध्वनि इन कर्णो में जाने कबसे न संजोयी है

हे हमराही ! पहचान मेरी, मैं तेरी धुन में बस फिसला

इस राह की कोई डगर नही, मै प्रेम - पथिक बस चल निकला ।।  


जब चलना तुझ संग जीवन है, पग थमे नही फिर कभी कहीं

जब राह रुके आगे जाकर, तो जीवन रेखा थमे वहीं

कुछ बात है तुझ संग चलने मे, जीवन की गति रूकती ही नही

तू हाथ पकड़ कर चले जहाँ, मैं खींचता जाऊँ वहीं - वहीं

तुझ सम पथ - निर्देशक पाकर, मैं प्रेम - डगर पे चल निकला

जीवन गाड़ी - सम दौड़ पड़ी, इस मार्ग में मुझको तू जो मिला ।।       


हे साथी ! पथ के राह मेरी, ज़रा झंझातो से जाती है

कुछ सँकरी गलियों से मुड़कर, फिर अपनी राह बनाती है

कुछ कोन पर्वतों के लाँघो, फिर नदियाँ बहती जाती हैं

फिर सागर से एक कुण्ड में ये, झर् - झर् करके गिर जाती है

विचलित ना होऊँ मार्ग में मैं, तू धैर्य बंधाता चल निकला

है मार्ग कठिन जो जीवन की, फिर भी मैं तुझ संग बढ़ता चला ।।     



चल मुझमें कुछ साहस भर दे, और धैर्य की तू भी दंभ लगा

चल देंगे दोनों फिर संग में, वो आगे पर्वत बुला रहा

सँकरी गलियों की तीव्र हवा, हू - हू करके दें ह्रदय कपा

नदियों की झर् - झर् मधुर ध्वनि से, राह की अटकल दूर भगा

ये राह ही मंजिल जायेगी, अब चल तू हाथ  में हाथ मिला

नदियाँ उफनी पर्वत लाँघा, मैं कर्म - पथिक बस चले चला ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - २३. ०७ . २०१६ 




                                    

।। प्रेम - वेदना ।।

अति कठोर है ये जीवन, तुझ बिन जीना नीरस-सा लगे
कुछ कमी-सी हर छण टीसती है, ये ज्वलित-ज्वार आतिश लगे
पग-पग धँसते हैं प्रस्तर से, कंट चुभे हर छण जैसे
हूँ कठिन पहर की बेरी में, मन व्याधित तेरी वेदना से
मुझ प्रस्तर की प्रतिमूर्ति में, जो लाव बराबर हैं धधके
मैं ज्वालमुखी सा अंतर में, हिय् आग बुझाऊँ अब कैसे।।

इसकी दमघोंट धुम्र-श्वसन, घेरे हैं मुझे बंधक से वसन
दिव को न मुझे आराम कोई, रात्रि जले स्मृति में जलन
उन स्मृतियों की ढेरी से, मैं ढूँढू तुझको सर्वप्रथम
तू मिले नहीं मैं व्याकुल हूँ, तू छिपी कहाँ हे जलज्-नयन !
मैं रोज़ जलूँ तुझ बिन ऐसे, यूँ शिशिर-अलाव जले जैसे
प्रियतम! अब तू ही बता जैसे, हिय् आग बुझाऊँ अब कैसे।।

प्रति पहर ये अंतर करे हवन, मंथन ही करे बावरा मन
ये आग जो तेरी अमिट लगी, वो शीत न हो ना बुझे जलन
मैं खुद को जला-जला करके, तुझमे मिल जाऊँ मेरे प्रियतम
मेरा जीव विसर्जित हो तुझमें, कैसा होगा वो पूर्ण-मिलन
उस मिलन-राह जो आस लगी, उस राह को पाऊँ मैं कैसे
हे दिव्य ! जलूँ मैं जन्मों से, हिय् आग बुझाऊँ अब कैसे।।

है ज्वलित गर्त धरा अबतक, जले चन्द्र-सूर्य नभ में कब तक
ये अग्नि ज्वलित हिय् में तबतक, मेरी श्वसन चले मुझमे जब तक
मैं पंचतत्व का अंश मनुष्य, मैं जलूँ निरन्तर जीवन तक
मैं तुझमे मिलके रे प्रियतम! मेरी लौ को बढ़ाऊँ अब कैसे
ज्यों घोर अँधेरा लौ में मेरी, हिय् आग बुझाऊँ अब कैसे।।

हे प्रीत ! मेरी  जलजा इतना, अस्तित्व मेरा ना रह जाये
मैं जाना जाऊँ प्रेम से ही, बाकी न कहीं कुछ दर्शाये
जब प्रेम का नाम कही जग में, या लेखों में भी पढ़ा जाये
प्रीतभिलाषा उच्चारण, सबके कर्णो में ही जाये
ख्याति की चाह नही मुझको, बस प्रेम की चाह मिले ऐसे
मैं प्रेम-अग्नि में जलूँ सदा, हिय् आग बुझे मेरी तुझसे ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - २३ . ०७ . २०१६














Friday 22 July 2016

। । मेरी कहानी । ।

मेरी प्रीत तुझसे ना झूठी कभी थी

करुँ प्रेम तुझसे ही कैसे बताऊँ

हे प्रिय ! तुम मेरी आत्मा मे हो बसती

जो जीवित हूँ तुझ बिन ये कैसे बताऊँ

मेरे गीत जीवन के तुझ बिन अधुरे, जहाँ कल्पना हो मैं तुझको ही पाऊँ

प्रिये ! ज़िन्दगी की  किताबों में तुझ संग, मै अपनी कहानी की कड़ियाँ बिताऊँ।



मै खोया हूँ पन्नों मे तुझ संग युगों से

चलूँ संग तेरे ही तेरी डगर पे

निकालूँ क्यूँ खुद को तेरे आश्रय से

ये जीवन-कहानी है पूरी हो तुझसे

प्रिये ! ये कथा प्रेम की जो चली है, उसे तुझपे ही मैं ख़तम करके जाऊँ

प्रिये ! ज़िन्दगी की  किताबों में तुझ संग, मै अपनी कहानी की कड़ियाँ बिताऊँ।



तेरा साथ ना तेरी छाया मिले जो

कल्पना के ही पन्नों में मुझ संग जिए यों

मैं जीवन  को अपने वहीं जाके जीलूँ

जहाँ तेरी बस्ती हो सब मे तुही हो

मैं देखुँ जहाँ भी तेरा दृश्य दरशे

तू अम्बर में भी हो धरा भी तुम्ही हो

मैं बादल हूँ प्रेमी बरसता जो तुझपे, जो ना तू मिले तो यूँ ख़ाली मडराऊँ

प्रिये ! ज़िन्दगी की  किताबों में तुझ संग, मै अपनी कहानी की कड़ियाँ बिताऊँ।



प्रेमी तेरा जो मैं सदियों से ही हूँ

तेरे संग को ऐसे कैसे भुलादूँ

तुझसे जुड़ा जो मै सदियों से ही हूँ

पल भर में सदियाँ वो कैसे मिटा दूँ

जीवन के पन्नो से अपनी कहानी को

यूँ फाड़ के मैं अनल में मिला दूँ

प्रिये ! जीव मेरा जो जिता है तुझसे

उसे बिन तेरे मैं यूँ कैसे जिलाऊँ

मिला सातवाँ ये जनम तेरे संग है, इसे मैं यूँ कैसे ही ऐसे गवाऊँ

 प्रिये ! ज़िन्दगी की  किताबों में तुझ संग, मै अपनी कहानी की कड़ियाँ बिताऊँ।



द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - २३.०७.२०१६ 

Thursday 7 July 2016

।। उस सागर से कुछ बूँद प्रिये, स्नेह-अश्रु अर्पण कर जाये ।।

हर रात्रि जगे आँखों में तेरी, तेरी स्मृति मे ये खो जाये 

जब तू समीप-सी होती है, उस छण को हर पल दोहराये 

सागर-सम विस्तृत भाव मेरे, बिन कहे ही काल गुज़र जाये 

उस सागर से कुछ बूँद प्रिये, स्नेह-अश्रु अर्पण कर जाये ।। 


मै आवारा तम मे खोया, है रात्रि पहर मे जगा-सोया

मेरा मन दौड़े द्रुत-गति पाकर, तू मिले न कही व्याकुल-सा हुआ 

जो मिले कही चक्षु थम जाये, तुझे देख-देख ये नम जाये 

मै हर्ष उठूँ मन भ्रम जाये, तेरे नयन मेरे संग ठन जायें 

उस मिलन से कुछ यादें लेकर, हे प्रिये ! मेरा मन सम जाये 

उस सागर से कुछ बूँद प्रिये, स्नेह-अश्रु अर्पण कर जाये ।। 


तुम रूठ गयी जबसे मुझसे, मै  विफल-विकल सा भ्रमण करुँ 

सत् -भौर मे कुंठित हृदय मेरा, मै मार्ग मे तेरी राह तकूँ 

हे प्रेम मेरी ! तू उबार मुझे, मेरे व्रत का मै निर्वाह करूँ 

तेरे प्रीत की भेंट भभूत लगा, तेरी छाया का श्रृंगार करूँ 

ये काल रात्रि आने से तेरी, स्मृतियाँ संग-संग सध् जाये 

उस सागर से कुछ बूँद प्रिये, स्नेह-अश्रु अर्पण कर जाये ।। 


हे काव्य ! यदा तू परिचित है, मेरे हिय् का भाव सुना उसको 

जो तू मुझसे प्रतिदर्पित है, मेरे विरह का हाल बता उसको 

तू वार्त मेरी उसके समक्ष कुछ ऐसे प्रस्तुत कर देना 

मेरी सुबह से लेकर साँझ सभी,  तू उसके हिय में गह देना 

कहना उससे आलिंगन हो, जड़ मन चेतन में आ जाये 

उस सागर से कुछ बूँद प्रिये, स्नेह-अश्रु अर्पण कर जाये ।। 


हे निशाकर! तेरी तीव्र चमक भी, धूमिल पड़ी गहरी-सी लगे 

क्यूँ अर्क -किरण ने भी तुझको, अपनी रश्मि से विलग किये 

कितनी कठोर ये बेरी है, जिसमे हम दो अभिश्राप लगे 

तेरी दशा दृस्टिगत मै जो करुँ, मुझे अपनी सी कुछ बात लगे 

सब मधु-शीतल स्वप्नों में रमे, और हम दोनों पिय राह तके 

चल अपनी व्यथा का हाल बता, आ हम दोनों कुछ बात करे 

प्रति-रैन यहाँ ही आकरके मै उसे स्मरण करता हूँ 

तेरे शीशमहल के दर्पण में  मै उसके दर्शन करता हूँ 

प्रिये ! जबसे अमावस काल भयी, छवि दर्शन को भी तरस जाये 

उस सागर से कुछ बूँद प्रिये, स्नेह-अश्रु अर्पण कर जाये । 



द्वारा - अविलाष  कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - ०७ / ०७ / २०१६ 

















Monday 4 July 2016

।। प्रेम-पथिक ।।

ये रातें भी कम अब तो पड़ने लगीं , लगन मुझको तुझसे ही ऐसी लगी। 

हृदय मेरे तू मुझको मिल जा अभी, विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।


ज़रा सा तू करले नज़र इस तरफ, 

मैं देखूँ तुझे तेरी आँखों में बसके,

शहर ख़ाली मेरा हुआ तेरे बिन  है,

मैं बस जाऊँ तुझमे तेरे जैसा बनके।   

भँवर में मिलूंगा तू आजा वहीं, विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।


                                                  पता  ना चले मुझको ऐसी जगह दे,

                                                  स्वपन में ही रखले ना कोई विरह दे,

                                                 अकेला-सा हूँ मैं तू अपना समझले,

                                                 उम्र भर  के लिए मुझको बाँहों में करले,

                                                 तू बाँहों में भरले, मुझे अपना करले,

                                                 मैं रह जाऊँ तेरा, तू कुछ ऐसा करले।

                                                श्वासें हैं गुम-सी, ख़फ़ा -सी कहीं, विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।


यूँ रातों की कजली में ढूँढ़े तुझे दिल,

तू चंदा की उजली में आजा मुझे मिल,

बारिश-सी पड़ जा मुझपे तू झिलमिल,

बूँदों को तेरी तरसा मै तिलतिल।

मै बादल आवारा जो बरषा नहीं, विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।


                                             अब रातों की कालिख भी छटने लगी है,

                                              प्रतीक्षा भी अब और बढ़ने लगी है,

                                              मैं व्याकुल-सा भटकूँ तिमिर में नीरा-सा,

                                              तेरी चाहते मुझसे अड़ने लगी हैं। 

                                               मैं तुझको पुकारूँ तू खोई कही, विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।


हे रात्रि ! तू मेरी व्यथा को समझले,

मैं मिल जाऊँ उससे ज़रा सा ठहरले,

उजाला ना होवे तू सूरज को ढकले,

कर कुछ जतन जो मेरी चाह रखले,

मेरी आस तू , ज़रा बात रखले,

प्रेम-पथिक राही की तू चाह रखले।

हे प्रिय मेरी तू देर कर अब नहीं,  विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।


ये रातें भी कम अब तो पड़ने लगीं , लगन मुझको तुझसे ही ऐसी लगी। 

हृदय मेरे तू मुझको मिल जा अभी, विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - ०४. जुलाई . २०१६ 




Thursday 23 June 2016

।। चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।

चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ

मैं मंजिल को अपनी क्षितिज़ पा रहा हूँ

चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।


जगत की वृहत उलझनों ने है घेरा

हैं गहरी ये रातें, है कुहरा सवेरा

घुमरे भवँर ने  मुझे  ऐसा घेरा

बताओ कहा पे छुपा अक्स मेरा

वृहत हो तुम  इतने मैं घबरा रहा हूँ, चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।


तुम्हारी ये मुझसे है कैसी लड़ाई

चढ़ाया शिखर पे अब दिखती है खाही

घनेरे भँवर की ये टेढ़ी चढ़ाई

ये दुविधा ने मेरी कहा मुझको लाई

उबारो मुझे अब मैं  उफना रहा हूँ, चले जा रहा था, चले झा रहा हूँ ।।


घनी काली रातों की कालिख - सी बदली

मेरे अन्तर्मन मे है कौधे - सी बिजली

व्याकुल करे मन हिय चीर निकली

मानवीय आशा की भी आह निकली

मै काया को अपनी क्षीण-सा पा रहा हूँ, चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।


हरित पुष्प घाटी भी जर्जर लगे क्यूँ ?

शबनम-सी बारिश भी थर - थर करे क्यूँ ? 

ये सँकरी -सी जालो में मैं हूँ फसा क्यूँ ?

न जाने की आतम को ऐसी सज़ा क्यूँ ?

खुद के ही पग-चिन्ह मैं ना पा रहा हूँ, चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।


मेरे आत्म-शक्ति की ऐसी परीक्षा

मेरे हर घड़ी की ये गूढ़ सी समीक्षा

तेरी अड़चनों की ये बिन मांगे भिक्षा

दमन कर रही मेरी हर शक्ति इच्छा

तेरी तीव्र अग्नि में जल जा रहा हूँ, चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।


ठहर थोड़ा मैं आत्म-मंथन हूँ करता

मेरी शक्तियों का मै संगठन करता

तेरा अंश हूँ मैं दिखा अपनी भयता

निबर जाऊँगा मैं नहीं तुझसे डरता

तेरी आफतों का चक्रव्यूह भेद करता

निडर-सा समर मैं चंचल सम् चपलता

मनुष्यता का वर मैं समझ पा रहा हूँ, चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।


मेरी शक्ति -संचित पे तेरी असर क्या ?

विवश करदूँ तुझको मैं स्थिर अचल-सा

मैं कंट-पथिक राही भँवर का मसीहा

तू संतुष्टि करले मैं आदी हूँ तेरा

तेरी आपदाओं से बार जाऊँगा मैं

तू जा आजमाले निबर जाऊँगा मैं

तेरी हर परीक्षा को हल जाऊँगा मैं

तू कुम्भार मेरा तो गढ़ जाऊँगा मैं

खरा हर कसौटी पे मैं जा रहा हूँ, चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - २६.०३.२०१६







II तुम हो निहार II

तुम हो निहार जो मुझे कभी फ़ुरसत में छक कर दिखी नहीं,

तेरे नयन से जब सम्बन्ध बने होने लगती है लुका - छिपी।

जब पूर्ण-इंदु दरशा ही नहीं तो व्यथा किसे मैं कहुँ किसे,

तुम चपल हो इतनी नयनों से, चपला भी तेरी कायल बनी।


                                                          नित-नव्या, नित-नवीन जो तुम कौतुहल हिय में देती हो,
                                                   
                                                          जब दृश्य तुम्हारा ओझल हो मन उद्वेलित कर देती हो।

                                                          मन को भेदा हिय घायल है जब घात विलुप्त-सी देती हो ,
                                           
                                                          तुम जीवन की हर सांस को अब प्रेरणा कैसे देती हो।


 घन-कजरे-बदरे नैन तेरे चक्षु-दृश्यम को व्यवधान करे,

तेरी मायावी विकिरण तन से मेरे अन्तर्मन को हानि करे।

तुम सम्बन्धित हो आदिम से या परलोक की कड़ी कोई,

जो मुझसे नेत्र-मिलाप कर, कर रही हो तुम सन्देश कहीं।

                                                     
                                                        जो भी हो चक्षु-दर्शन दो, हृदय-उदगार को तृप्त करो,

                                                        मन लगे निरन्तर तुममे  ही, अब ओझलता को भंग करो।

                                                        तेरे परिचय की असमंजस में  मेरे  दिवस - रैन की चैन छिनी,

                                                       अब शत्रु -मित्र सब बिसर गये तेरी चिंता मेरी प्रथम बनी।


तुम वसुधा-सम वृस्तृत समस्त्र, मै चन्द्र - परिक्रम हूँ तेरी,

निज भोर जो  छुप जाये मुझसे मैं रात्रि-मिलन के  जतन करुँ।

हे सुन्दर ! कन्ज - नयन नारी ! मेरी व्यथा का अब भंजन  भी करो,

मैं जनम-जनम से पथिक तेरा मेरे कर्म-मार्ग का अंत करो।


                                                    अब समय का  करके ध्यान मेरे, दृस्टिगत दिव्य - विलिन करो,

                                                    चक्षु भर जाये वो कर्म करो, मम् आत्म - तरन का  मर्म करो।

                                                    मुझे आतम में  सम्मिलित करके, मेरी भौतिकता को भंग करो।

                                                    मै  चिर - अग्रसर पथ पे तेरी, मेरी व्याकुलता को शांत  करो।

                                                    मेरी व्याकुलता को शांत  करो। मेरे जनम - व्रत को अर्थ करो।

                                                    मुझे चिर - अन्त प्रदर्शित कर, मेरे जीवन को तुम धन्य करो ।।







द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय

दिनाँक - १४ . ०८ . २०१५

                                                     

                                                       

                                                     

II अन्तर्मन II

मेरे दर्द के उस तार को तुम यूँ न जगा देना,
की मेरी आँखों से ये आंसू बड़ी मुश्किल से निकलते हैं।।
                               
                                बड़े ही राज़ दफने हैं मेरी आँखों की  कोरों में,
                                की शोले रोज़ इस दिल में उफनते हैं मचलते हैं।

करे परवाह क्यूँ अब हम जब सब बेपरवाह मौला हैं,
की हम अपनी ही परवाह में चले बेसुध से मिलते हैं।

                                  पाया बहुत हमने यहाँ खोना तो फ़ितरत है ,
                                  की चाहतों की दरिया में हमें क्यूँ लोग मिलते हैं।

बहुत भारी पड़ा हमपर हमें लोगों को समझाना,
की ये बातें ही ऐसी हैं जो बस पन्नों में मिलते हैं।

                                   जले दिल का हर एक कोना मेरे अपने ही कृत्यों से,
                                   की अब तो ख़ुद में ही सैकड़ों हैवान पलते हैं।

भला है क्या बुराई को समझना अब नही मुझको ,
की ये आदर्श तो बस अपने ही मतलब में मिलते हैं।
                                 
                                   नहीं रोको मुझे अब बात दिल की कह ही लेने दो ,
                                   की इन हाथों में क़लम भी कभी विरले ही मिलते हैं।।

मेरे दर्द के उस तार को तुम यूँ न जगा देना,
की मेरी आँखों से ये आंसू बड़ी मुश्किल से निकलते हैं।।



द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - २८ . १० . २०१६






Wednesday 22 June 2016

।। अनल ।।

हिय ! मेरे जला-बुझा-सा  तू क्यूँ  जिया जाये,
ये जिन्दगी से वार तेरी, मुझको समझ ना आये।।
डूबा-सा है क्यूँ खुदमे ही,
भटका  लगे  ख़बर नहीं,
ज़ोर क्यूँ अपने हृदय पे , तू  बढ़ाता जाये।
ये जिंदगी से वार तेरी, मुझको समझ ना आये।।

क्यूँ तू ज्वलन छिपा रखे,
क्यूँ तू घुँटन बढ़ा रखे,
धुँए के धुंध में क्यूँ तू ,
श्वांस को चढ़ा रखे,
तेरे तपिश की आहटें ,
जली-जली-सी सिलवटें,
उफ़ान के शिख़र पे क्यूँ ,
ज्वाले की गरम लपटें,
तेरी अनल से मेरा, हृदय भी झुलसा जाये।
ये जिंदगी से वार तेरी, मुझको समझ ना आये।।


तेरे भावों की लुका-छिपी,
हों जैसे मुझसे खेलती,
ज़ुबान मौन-सी  सदा,
जड़-सी  है  मेरे  प्रति,
सनै-सनै तू मुझमें भी, क्यूँ पैठ करता जाये।
ये जिंदगी से वार तेरी, मुझको समझ ना आये।।


तू बाँवरा-सा  क्यूँ  लगे,
अपनी ही धुन में क्यूँ रमे,
पाग़ल तू हस्त दीप पे,
खुद ही रखे, खुद ही जले,
जलने की ये अदा अज़ब, किससे कहें-बतायें ।
ये जिंदगी से वार तेरी, मुझको समझ ना आये।।


जिंदगी की ख़ोज में,
जले क्यूँ अपनी मौज़ में,
जले तू अपनी सोंच में,
आज कल हर रोज़ में,
विफ़ल-विकल बुझा लगे,
तू मुझको ज़लज़ला लगे,
जला के तुझपे मैंने करली ख़ुद से ही लड़ाई।
ये जिंदगी से वार तेरी, मुझको समझ ना आये।।





द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - २२.०६.२०१६









Saturday 18 June 2016

!! प्रेम-पथिक !!

मेरी रैन बसे तेरी बाँहों  में,
मेरी नैन लगे तेरी साँसों  में
मैं छण-छण सदियाँ  जीता हू, तेरी गह -कजरारी आँखों  में....

यों पीता हूँ तेरे नेत्र-रस,
ज्यों ज़नम-ज़नम की प्यास लगे.
जैसे भ्रमर आवारा भटकल में,
उसे पुष्प-मिलन की आस लगे.

मैं ओढ़ हया लू सब  तेरी, इन बदरारी बरसातों  में.
मैं छण-छण सदियाँ  जीता हू, तेरी गह -कजरारी आँखों  में....

तेरी श्वाँस लगे मधुकर-चंदन,
मेरी रात्रि मधुर सावन-सी लगे.
तेरी बाँहों  की वरमाला  में,
मुझे आस लगे मेरी प्यास बुझे.
मेरा अन्तर-आत्म भीग गया,
तेरे प्रेम का सावन अस  बरसे.
मेरा हिया-मयूर हर्षित होकर ,
तेरे प्रेम-मिलन का नृत्य करे.

मेरा तन-मॅन तुझ में डूब गया, इन बूँदियारी बरसतों में.
मैं छण-छण सदियाँ  जीता हू, तेरी गह -कजरारी आँखों  में....

मुझे प्रेम- पथिक तू अपनाले,
मैं प्रेम-रसिक बन जाऊंगा.
हिय  में रख कर तेरा स्नेह-शुभ्र,
तेरा अनुग्रही कहलाऊँगा .
मैं प्रीत में तेरी सध्  -सध्  कर,
सब प्रेम सुधा-रस पाउँगा.
हे प्रिय! मेरी तुम श्वास मेरी,
तुझे हर छण जीता जाऊँगा .

कल्पना में भी तुझ बिन जीवन, इन दुश्वारी झंझातों में.
मैं छण-छण सदियाँ  जीता हू, तेरी गह-कजरारी आँखों  में....


द्वारा - अविलाष
दिनाँक - १८-०६ -२०१६ 

!! मेरा काव्य तेरे सम हो जाए !!

नित नेत्र मेरे तुझे याद करें,
या जीवन अंधतम  हो जाए.
तेरी छाया मुझपर प्रति छन हो,
या धरा अनल-सम हो जाए.

मैं चिर-विलीन का व्रत करलू, तू आत्म मे मेरी खो जाए,
मेरा मन अल्हड़ तुझे जोड़े रखे, मेरा काव्य तेरे सम हो जाए.

मैं प्रेम-रहित वंचित मनुस्य,
तेरी धारा में तर- भीग गया.
तेरी छाया की स्थिरता ने,
मेरी दरिद्रता को चीर दिया.

मैं दीन-हीन जीवन-रस से,  तेरी चाह मे तन-मन जल जाए,
मेरा मॅन अल्हड़ तुझे जोड़े रखे, मेरा काव्य तेरे सम हो जाए.


तूने प्रेम का कर व्यवहार मुझे,
मेरे अंतर्मन को जीत लिया,
मैं प्रीत में तेरी विह्वल हो,
सत्-जीवन  तुझपे बीत दिया.

अब जो करले मैं तेरा हू, तेरी राह मे प्राण निकल जाए,
मेरा मॅन अल्हड़ तुझे जोड़े रखे, मेरा काव्य तेरे सम हो जाए.


तूने प्रीत किया, मुझे जीत लिया,
हिय-ज्वालाग्नि को शीत दिया,
मेरी श्वास को अमर ज्वलन देकर,
मेरी भौतिकता को कृत्य किया.

मैं भाव-विहोर तेरे मॅन पे, मेरा जीवन तुझपर फल जाए.
मेरा मॅन अल्हड़ तुझे जोड़े रखे, मेरा काव्य तेरे सम हो जाए.


द्वारा-  अविलाष!
17/06/2016