Wednesday 9 August 2017

।। है चाह शून्य तक जाने की ।।

मैं नव-कोंपल हरबेल त्वरित 
है चाह शून्य तक जाने की 
ऊपर जाते सरकण्डों से 
है चाह लिपट ही जाने की 
जीवन-पथ है उबड़-खाबड़ 
ज़िद अपनी राह बनाने की 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।

इन बौढ़ विस्तृत राहों में 
है नया-नया अनुभव मेरा 
निज दिवस यज्ञ-सम जलें यदा 
जब निशा ने थामा हाथ मेरा
बेनाम लघु औ दबा कुचला 
जब परिचय जग से  हुआ मेरा  
स्नेही घन की बौछारों में 
ऋतु ना आयी मुरझाने की 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।

पग टेढ़े-मेढ़े रख-रख कर 
मैं चले चला हो कोई डगर 
नद, नाल मिले बिखरे प्रस्तर 
ये कदम थमे न आठ पहर 
प्यासे सी ढूढ़े राह नज़र 
बढ़ती बाहें ना रुके मग़र 
चलते भागे ये कदम मेरे 
ना कोई घर्षण आने दी 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।

छल-छल कर पड़ती अर्क-किरण 
ने दिया वृद्धि का मुझे वचन 
लम्बे तरु की छाहों ने दिया 
शीतल, बासन्ती मुझे छुअन 
चलते ही चला बढ़ते ही रहा 
सृष्टि ने लिया जो परिवर्तन 
जब मार्ग सभी मुँह मोड़ चले 
मन-मार्ग मिलाप हो अंतर्मन 
जो आवन आये भाग मेरे 
ना कोई विखंडन आने दी 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।

जब हाथ बढ़ाया आश्रय को 
मन से गठबंधन हुआ मेरा 
यों मेल की गाँठ बँधी ऐसे 
हिय-बंद-द्वार तब खुला मेरा 
नव सोंच के वर्ण में तन रँगिया 
नव-भोर का  हुआ मुझे बेरा 
मद-मस्त पवन के झोंकों ने 
तन-मन सब मेरा झकझोरा 
अमृत-रश्मि को पी ही गया 
परवाह ना की जल जाने की 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।

राहों में दूरी अभी भले 
मंजिल ना दिखे हैं क्षितिज तले 
रातों की भयावह कालिख में 
भ्रम डाल-डाल तू बहकाले 
तम की माया सब ओर तेरी 
घनघोर धुन्ध काले-काले 
आधार से लिपटे मैं अपने 
बढ़ता जाऊँ हौले-हौले 
बढ़ने की लत अस लगी मुझे 
भ्रम-द्वंद में दाव लगाने की 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।

मन-वृद्धि ने खोला ज्ञान-ज्योति 
सब वार तेरे अब तुच्छ लगे 
विकसित तन यज्ञ में सध मेरा 
बढ़ने को आतुर उच्च लगे 
गतिरोध विखंडन शास्त्र-निपुड़ 
हरबेल शून्य की ओर बढ़े
छा जाये ब्रम्ह पटल पर सब 
हिम-छोर त्याग अब आगे बढ़े
तू भी हो जा तैयार यदा 
अड़चन राहों की बढ़ाने की 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 
दिनाँक - ०९ अगस्त, २०१७