Saturday 30 December 2017

।। जीवन मैं निरन्तर राह तेरी, जिस ओर चली उस ओर चला ।।


टूटे हिम्मत को जोड़ चला 
हाँ धैर्य बाँध पुरजोर चला 
सम्मुख मेरे चट्टान अडिग 
गिरते-पड़ते पथ ओर चला 
जीवन मैं निरन्तर राह तेरी 
जिस ओर चली उस ओर चला ।।

जीवन पथ भी कुछ है ऐसा 
जो चले निरन्तर चाल नयी 
सोची-समझी तैयारी की 
ना इसमें कोई कमाल नहीं 
बस खोल छोड़ दे नद्-धारा 
बहकर चलदे इस सागर में 
लघुता में तेरी निज हानि है 
सब भरलें तुझको गागर में 
हर बन्द द्वार तू खोल सभी 
अंधे मन-मन्दिर दीप जला 
जीवन मैं निरन्तर चाल तेरी 
जिस ओर चली उस ओर चला ।।

मैं राह में तेरी चल निकला 
कुछ चाह लिये अंतर्मन में 
निज भोर-रश्मि जा शाम ढले 
कुछ तो पा लूँगा जीवन में 
ना मिटें कदम जो चाप दिये 
धूलि में तेरी हमने चलके 
ना भार का कोई काम नहीं 
तुझको है लिया हमने हलके 
चल दी है तेरी मझधारों में 
हिम्मत को मेरी पतवार बना 
जीवन मैं निरन्तर चाल तेरी 
जिस ओर चली उस ओर चला ।।

कुछ साथ मेरे थे छूट गये 
राहों के जटिल वीरानों में 
आगे कश्ती है रिक्त मेरी 
टकराये जो तूफ़ानो से 
ना भरमा सकती है मुझको 
मंजिल मेरी बढ़ पाने से 
ये दौर मेरा है, तेरा नहीं 
कुछ ना होगा भरमाने से 
चलना है तुझ संग पार क्षितिज 
चल चले चलें अब कदम मिला 
जीवन मैं निरन्तर चाल तेरी 
जिस ओर चली उस ओर चला ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 
दिनाँक - ३०. १२. २०१७ 

Sunday 3 December 2017

।। आवारा बादल ।।

है भरा-भरा उन्माद धरा
हर दिवस वही है चहल-पहल
हर वार भीड़ में दबा हुआ
बीते हर आने वाला कल
सिमटा सँकरा आश्रय तेरा
मैं हिस्सा इसका एक अटल
है कर्मभूमि ये शहर मेरा
मैं  इसका आवारा बादल।।

मँडराते मेघ सम मैं भटकूँ
अम्बर वृस्तित है पटल तेरा
सीधा, सपाट ना समतल तूँ
ऊँचा-नीचा, सँकरा, गहरा
तेरे ज्वार-भाट में बहे चलूँ
वारिद बूँदें जो दें नहला
झंझावात निस दिन देख तेरे
हिय का कोना-कोना दहला
कम पड़ जाये ये छत तेरी
जब ताप गिरे रवि-रश्मि विरल
है कर्मभूमि ये शहर मेरा
मैं  इसका आवारा बादल।।

लहरों पे मचलते शहर में इस
पतवार धरे हैं कुछ मैंने
हैं शक्ति समेटे सब मिलकर
मझधार तरे हैं कुछ मैंने
मुस्कान में कुछ, कुछ नमी-नमी
हर शाम भी ढल ही जाती  है
लड़ते-लड़ते मझधारों से
तकरार जमाई है मैंने
एक दिन उभरेगी परछाई
सँकरी गलियों को चीर निकल
है कर्मभूमि ये शहर मेरा
मैं  इसका आवारा बादल।।

लूटी है बहुत खुशियाँ  मैंने
बेबाक शहर की महफ़िल में
कुछ लूट लिया इसने मुझको
बेमानी भी इस सङ्गदिल में
लाखों हैं खड़े सड़कों पे मगर
सब तन्हा अपनी मंजिल में
ना ख़बर किसी को कोई यहाँ
दीवार बँधी है हर दिल में
अनदेख गुज़र जाता हूँ मैं
बिन पूछे तेरा हाल निकल
है कर्मभूमि ये शहर मेरा
मैं इसका आवारा बादल।।

बदले इसका चेहरा हर छण
प्रतिपल बढ़ता आकार नया
परिवर्तित करदे अपने सम
पड़ती जिसपे इसकी छाया
सब बौंर-बाग़ कर दिये ख़तम
हर गाँव को बस्ती बना दिया
अब शहर मेरा विस्तृत इतना
आधार को अपने जला दिया
बढ़ती आबादी भार तले
बदली काया है आज पटल
है कर्मभूमि ये शहर मेरा
मैं  इसका आवारा बादल।।


द्वारा- अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - ०२. १२. २०१७





Friday 17 November 2017

।। कल धुप मिलेगी राहों पर ।।


आ शौर्य बना आवरण तेरा
चल निकल पड़ें बस राहों पर
मन में ना रख सन्देह कोई
अपनी इन लौह-भुजाओं पर
मिलती मंजिल ना पथिक कभी
घर की दरख़्त की छाहों पर
जल जाये आज तो फिकर नहीं
कल धुप मिलेगी राहों पर ।।

डर जलने का तू त्याग अभी
जीवन की अग्नि-परीक्षा में
सोया राही तू जाग अभी
अपने मन-शक्ति समीक्षा में
झूठा हठ मन से त्याग अभी
इस नए दौर की शिक्षा में
हर ज्ञान का करले जाप अभी
इस मन-मन्दिर की इच्छा में
हर राह की डगर है खुली अभी
कौतुहल है चौराहों पर
जल जाये आज तो फिकर नहीं
कल धुप मिलेगी राहों पर ।।

चल कदम ताल से ताल मिला
है आज प्रदर्शन की बारी
तू इस समाज की ताक़त है
कन्धों पे लिये ज़िम्मेदारी
है युवा अटल तू पर्वत-सा
स्थिर, अभेद पहरेदारी
तू बढ़ आगे अनुसरण करें
सब वृद्ध, व्यस्क और नर-नारी
है शक्ति-सबल तू कर्म-निपुण
सब देखे तुझे निगाहों पर
जल जाये आज तो फिकर नहीं
कल धुप मिलेगी राहों पर ।।

मूर्छित समाज की आस है तू 
आधार है तेरी भुजाओं में 
काया कुटुंब की बदलेगी 
संकल्प उठा इन राहों में 
जन्मा मनुष्य का अंश है तू 
विश्राम तुझे ना छाहों में 
हे युवा! निकल तू राह बना 
हर दृष्टि है तेरी भुजाओं पर 
जल जाये आज तो फिकर नहीं
कल धुप मिलेगी राहों पर ।।


कल धुप खिलेगी नयी-नयी
उसमे झलकेगा शौर्य तेरा
उज्जवलित सृष्टि की चमक में तू
हर रश्मि में होगा अंश तेरा
ये नव-समाज स्थापित हो
जिसके स्तम्भ में तू हो भरा
आधारभूत जिसकी हो अडिग
निर्माण भव्य हो वृहत नीरा
तेरी बातें दोहरायें सभी
आदर्श-पथिक की यादों पर
जल जाये आज तो फिकर नहीं
कल धुप मिलेगी राहों पर ।।


द्वारा- अविलाष कुमार पाण्डेय 
दिनाँक - १७. ११. २०१७ 

Saturday 4 November 2017

।। सौंदर्य ।।

हिय हर्ष उठा रे कजरारी
नयनों में तेरी जो छाप पड़ी
सौंदर्य रूप श्यामल तेरा
विह्वल मन-तार तरँग उठी
मन-विहग राग में चहक उठे
उपवन-मन कलियाँ भी मँहकी
चन्दन वर्षा आनंद मिले
जो तूँ  निहार कर मुझे चली।। 

चन्दन-सी पवन तुझसे आकर
मेरे अत्र-तत्र वारिद छाये
मन महक उठा आनन्दित हो
प्रियतम तुम जब सम्मुख आये
मन किंकर्तव्यविमूढ़ मेरा
हलचल व्याख्यान ना कर पाये
प्रतिबन्ध में बँधा है मन मेरा
चक्षुओं में तेरी झाँके जाये
भ्रम-भौंर सी गहन नज़र तेरी
मद मस्त ये मन बहका जाये 
ना रोक सकूँ खुद को निर्बल 
आकर्षण ज़ाल  में फँस जाये 
स्वातंत्र्य मेरा छीना तुमने 
हिय को अपने संग बाँध चली 
चन्दन वर्षा आनंद मिले
जो तूँ  निहार कर मुझे चली।। 

जो फूट पड़े हिय-गीत मेरे 
हिय से बंधन बांधे जाये 
मधुरिम वर्षा की तरंगों में 
गीला मन नम हो बह जाये 
बहकर मन स्वपन की धार मेरे 
तेरे सानिध्य को पा जाये 
करके प्रहार मन विवश करे 
मोहक भावों की गिरी बिजली 
चन्दन वर्षा आनंद मिले
जो तूँ  निहार कर मुझे चली।। 

पाया तुमने जो रूप-कुम्भ
 ना-ना प्रकार के गुणों भरे 
हो बाह्य आवरण भी जिसमें 
श्रृंगार रूप पाकर निखरे 
हर एक भाग में कला तेरी 
किस ओर से व्याख्या शुरू करें 
आँखें मधु मद में मनमायी 
इस दृश्य की साक्ष्य हैं नेत्र मेरे 
तेरे रूप-सोम की मादकता 
मेरे अम्बर पे अब घोर चली 
चन्दन वर्षा आनंद मिले
जो तूँ  निहार कर मुझे चली।। 

गन्धर्व, नाग तू सर्वोपरी 
तू जहाँ-जहाँ पग धार चले 
हों पाप-मुक्त नर सभी वहाँ 
गँगा जैसी तू धार चले 
अर्पण करके तुझे देह मेरी 
परलोकी मन ये सिधार चले 
अंधी रातों का पतंग ये मन 
आगे क्या जाने प्राण चले 
तुझसा लव-दीपक पा करके 
अस्तित्व मेरा हर रात जले 
मेरे रोम-रोम में गढ़ी जो तुम 
हिय से पुकार सत बार चली 
चन्दन वर्षा आनंद मिले
जो तूँ  निहार कर मुझे चली।। 


द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 
दिनाँक - ०४ .११.२०१७ 

Saturday 7 October 2017

।। आघात ।।

शशि तेज़ तुम्हारा धूमिल हुआ
अम्बर कालिख विस्तार भयी
अब श्वेत-रश्मि की जाल छँटी
नभ-मण्डल हाहाकार भयी
भयभीत आवरण-सी बदरी
हलचल नभ त्राहि पुकार भयी
परिवर्तन शून्य में देख मेरे
हिय में क्रंदन की धार बही।।

चाँदी समतल इस नभ-तल में
बदलाव बयार की रात्रि बही
अब धुंध प्रकोप प्रभाजन से
नभ-उपवन अंध पसार रही
निशि को निगला अँधियारे ने
घन व्यापक सर्व-प्रसार भयी
क्रोधित चपला चमके नभ में
ज्यों चंद्रलोक में रार भयी
घन-कटक वार अब द्वार खड़े
निशि राज्य विकट उत्पात भयी
हलचल नभ में सब देख मेरे
हिय में क्रंदन की धार बही।।

नभ ने साधे कुछ तीर तेज़
बूँदों के अलौकिक बाणों से
गति अति अदभुत हों तीव्र वेग
ज्यों निकले तीर कमानों से
हिय भेद मेरा घायल करदें
गिरती बूँदें घनयानों से
मन स्थिरता में लगी सेंध
बरसी विपदा असमानों से
बदले सुर में संसार लगे
बदली-बदली सी बयार बही
बदलाव आवरण सृष्टि देख
हिय में क्रंदन की धार बही।।

आक्रामक अरि-प्रहार निष्ठुर
दे वार साध कर अति-स्थिर
जल से जल जाये देह अधीर
बरसे जल अस जस तीव्र मिहिर
उसपर झोंकों का कुटिल समीर
दे देह कँपाज्यों मध्य शिशिर
अरि की चहुँ ओर प्रकोप बहे
हर ओर मेघ हुँकार चली
घन की अति-वृष्टि देख मेरे
हिय में क्रंदन की धार बही।।

देखी न कभी चक्षुओं ने मेरी
ऐसी अति वृष्टि प्रकोप सरि
प्रतिकूल लगें सब दशा मेरी
ऐसी बरसी भय-बुन्देश्वरी
प्रतिघात निपुण कठोर अरी 
कालिख सी लगे सृजन-सुन्दरी 
इस दीन-दशा की पहर कठिन 
जो धैर्य-बांध भी टूट गयी 
परिवर्तन शून्य में देख मेरे
हिय में क्रंदन की धार बही।।



द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 
दिनाँक - ०७.१०.२०१७ 

Thursday 7 September 2017

।। स्मृति-प्रवाह ।।

बीते कल का संदूक खोल
मैंने कुछ याद उधेड़ी है
सब धूल जमे लम्हे अमोल
की मैंने परत बिखेरी है
सम्मुख बहते पल सभी मेरे
जी डाला जिनको जल्दी में
स्मृति-प्रवाह पे रोक लगा
 मैंने कुछ याद उधेड़ी है।।

पल बेपरवाह गुज़ार दिए
नादान पहर की धारों में
दुनिया से मिलाते चाल चला 
अनजान समय के वारों में
मौका ना दिया जिन्हें एक टूक
सरपट भागे गलियारों में
ना सोच रुकाये कदम मेरे
राहें जाती अंधियारों में
हर गलियारे की कहानी से
मैंने अवशेष बटोरी है
स्मृति-प्रवाह पे रोक लगा
मैंने कुछ याद उधेड़ी है ।।

यादों के बुझे अवलोकन में
मैं मिला समय की बाहों में
चल रहा ना कोई साथ मेरे
प्रतिबिम्ब मेरी ही छाहों में
बेबाक़ी मुझमे भी ऐसी
नासमझ-सी मेरी निगाहों में
जिस दौड़ का प्रतिभागी मैं था
उस दौड़ में मैं बस राहों में
जीवन के भागम भाग से बस
एक धुँधली शाम बटोरी है
स्मृति-प्रवाह पे रोक लगा
मैंने कुछ याद उधेड़ी है ।।

सन्दूक मेरे बीते कल का
स्मृति तह में है सब लिपटे 
मैं सरपट भागा राहों में 
ये साथ चला पीछे-पीछे
मैं उड़ा ख्वाहिशों के नभ में
ये चला साथ नीचे-नीचे
सब भ्रम है या फिर सत्य सभी 
ना प्रश्न कोई राहों से किये
बस हाथ मिलाकर चले चला
एक बार को ना देखा पीछे
उस अंध-दौड़ की पुष्तक से
मैंने कुछ पंक्ति निचोड़ी है
स्मृति-प्रवाह पे रोक लगा
मैंने कुछ याद उधेड़ी है ।।

द्रुत-गति पकड़ी उन राहों में 
आँधी-सम भागम-भाग चला 
नादान पथिक मैं भ्रमित डगर 
पीछे छोड़े पद-चाप चला 
सब चिन्ह संग्रहित जीवन के 
विश्लेषण करने आप चला 
खोये दो लम्हे पाने को 
मैंने अतीत से ख़ाक छला 
यादों की पगडण्डी सँकरी 
पर मैंने पांव पखेरी है 
स्मृति-प्रवाह पे रोक लगा
मैंने कुछ याद उधेड़ी है ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 
दिनाँक - ०७. ०९. २०१७ 

Wednesday 9 August 2017

।। है चाह शून्य तक जाने की ।।

मैं नव-कोंपल हरबेल त्वरित 
है चाह शून्य तक जाने की 
ऊपर जाते सरकण्डों से 
है चाह लिपट ही जाने की 
जीवन-पथ है उबड़-खाबड़ 
ज़िद अपनी राह बनाने की 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।

इन बौढ़ विस्तृत राहों में 
है नया-नया अनुभव मेरा 
निज दिवस यज्ञ-सम जलें यदा 
जब निशा ने थामा हाथ मेरा
बेनाम लघु औ दबा कुचला 
जब परिचय जग से  हुआ मेरा  
स्नेही घन की बौछारों में 
ऋतु ना आयी मुरझाने की 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।

पग टेढ़े-मेढ़े रख-रख कर 
मैं चले चला हो कोई डगर 
नद, नाल मिले बिखरे प्रस्तर 
ये कदम थमे न आठ पहर 
प्यासे सी ढूढ़े राह नज़र 
बढ़ती बाहें ना रुके मग़र 
चलते भागे ये कदम मेरे 
ना कोई घर्षण आने दी 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।

छल-छल कर पड़ती अर्क-किरण 
ने दिया वृद्धि का मुझे वचन 
लम्बे तरु की छाहों ने दिया 
शीतल, बासन्ती मुझे छुअन 
चलते ही चला बढ़ते ही रहा 
सृष्टि ने लिया जो परिवर्तन 
जब मार्ग सभी मुँह मोड़ चले 
मन-मार्ग मिलाप हो अंतर्मन 
जो आवन आये भाग मेरे 
ना कोई विखंडन आने दी 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।

जब हाथ बढ़ाया आश्रय को 
मन से गठबंधन हुआ मेरा 
यों मेल की गाँठ बँधी ऐसे 
हिय-बंद-द्वार तब खुला मेरा 
नव सोंच के वर्ण में तन रँगिया 
नव-भोर का  हुआ मुझे बेरा 
मद-मस्त पवन के झोंकों ने 
तन-मन सब मेरा झकझोरा 
अमृत-रश्मि को पी ही गया 
परवाह ना की जल जाने की 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।

राहों में दूरी अभी भले 
मंजिल ना दिखे हैं क्षितिज तले 
रातों की भयावह कालिख में 
भ्रम डाल-डाल तू बहकाले 
तम की माया सब ओर तेरी 
घनघोर धुन्ध काले-काले 
आधार से लिपटे मैं अपने 
बढ़ता जाऊँ हौले-हौले 
बढ़ने की लत अस लगी मुझे 
भ्रम-द्वंद में दाव लगाने की 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।

मन-वृद्धि ने खोला ज्ञान-ज्योति 
सब वार तेरे अब तुच्छ लगे 
विकसित तन यज्ञ में सध मेरा 
बढ़ने को आतुर उच्च लगे 
गतिरोध विखंडन शास्त्र-निपुड़ 
हरबेल शून्य की ओर बढ़े
छा जाये ब्रम्ह पटल पर सब 
हिम-छोर त्याग अब आगे बढ़े
तू भी हो जा तैयार यदा 
अड़चन राहों की बढ़ाने की 
मैं चलूँ डगर पे लहराके 
इस बेपरवाह ज़माने की।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 
दिनाँक - ०९ अगस्त, २०१७ 

Saturday 6 May 2017

।। संघर्ष ।।

मन मे ना अब कुछ चाह रही
कुछ मंजिल ना अब पाने को
जीवन  के सब रंग छोड़ चला, तेरे रंग में अब रंग जाने को ।।
हिय आवारा हठ कर बैठा, तेरे संग जीवन जी जाने को ।।


ये घनीभूत है प्रीत में तेरी 
आज बरस सब जायेगा
ये आवारा क्यूँ समझे ना
जो तुझपे ही मँडरायेगा
जीवन सागर से प्रीत की वर्षा
तुझपे ही कर जायेगा
मिल जाये जितने चोट इसे
ये कुम्भ तभी बन पायेगा
इसको ना मज़ा जीवन में कुछ, बस तेरी धुनी रमाने को ।।
हिय आवारा हठ कर बैठा, तेरे संग जीवन जी जाने को ।।


विलुप्त हुआ वैरागी मन,
ना होश इसे है दुनिया की
सब छोर करे ये नादानी,
परवाह करे ना अपनी भी
ये मस्त हुआ है किस मद मे
मै जान सकूँ ना इतना भी
स्वामित्व मेरा है इसपे पर
है काम करे ये अपना ही
दर्शन की बातें क्या मै करूँ, जो इसका मन भरमाने को ।।
हिय आवारा हठ कर बैठा, तेरे संग जीवन जी जाने को ।।


एहसान करे तू ही इतना
जो इसको बस ये समझा दे
इसकी बेमानी चाल से अब
आज़ादी मुझको दिलवा दे
ना सुनता मेरी रत्ती भर
एहसास इसे कुछ करवादे
दिवाने के दिवानेपन का
कोई जतन तो करवादे
थक-हार गया बेगाने से, ना सबक रही समझाने को ।।
हिय आवारा हठ कर बैठा, तेरे संग जीवन जी जाने को ।।


चौपाल लगाये हिय-बैरी
बातें ज्ञानी-सा करता है
सुःख-दुःख का क्रम समझा रहा
जीव-मरण की चर्चा है
दिवाने की इस महफ़िल में
यथार्थ मेरा क्या करता है
इसकी बातें ना भली मुझे
ना मेरी ये कुछ करता है
बालक अबोध ये बन बैठा
मेरी-इसकी परिचर्चा है
दे देता ये आधार कई, बातें अपनी मनवाने को ।।
हिय आवारा हठ कर बैठा, तेरे संग जीवन जी जाने को ।।


कब तक झेलूँ मै इसे भला
क्या इसका मै परित्याग करूँ
हठधर्मी हिय की चाहत का
क्यूँ ना अब मै परिहास करूँ
दूँ ज़ला ख्वाहिशें इसकी सब
इसकी धड़कन पे दाब धरूँ
भौतिकता के इस भगदड़ मे
अपने मन पे ही ताप करूँ
क्या मिलना मुझको भावों से
भौतिक युग में अपवाद बनूँ
ना मुझसे ये सब ना होगा
हिय मेरे! तेरा त्याग करूँ
मज़बूरी मेरी समझे तू, आया युग निर्वसन पाने को ।।
हिय आवारा हठ कर बैठा, तेरे संग जीवन जी जाने को ।।


द्वारा: अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक: ०६.०५.२०१७

















Thursday 4 May 2017

।। Deep into the Valley ।।

तुम चंद्र-कला सी चतुर अरी !
छण ओझल छण में  प्रकाश भरी
तेरी गति अचल हे सौम्य-सरि !
झर-झर बह जाये तू निर्झरी ।।


तेरा असीम जो दृष्य मिले
मन विह्वल होकर पूर्ण खिले
मै मिट जाये आनंद तले
छाया भी तेरी जो अर्ध मिले
हैं मायावी सब काज तेरे
बन जाऊँ माया का प्रहरी
स्तब्ध नेत्र बस दर्शक हैं 
तू मुझसे ऐसी जो बिखरी
हे चन्द्रकला ! हे कुटिल अरि ! झर-झर बह जाये तू निर्झरी ।।
तेरी गति अचल हे सौम्य-सरि ! झर-झर बह जाये तू निर्झरी ।।


कमती - बढ़ती ये ओज तेरी
गति-घर्षण मे हिय-चाल मेरी
उलझा मेरा अम्बर किसमे
क्या कोई मायाजाल तेरी
सिखा तूने चंचलता अस
क्या स्रोत तेरा है वही शशि
समता पाऊँ मै दोनों मे
गुण दोनों के मन मे पसरी
हिय हार दिया तुझपे मैंने, हे सुर-नारी! हे निरा -सुंदरी !
तेरी गति अचल हे सौम्य-सरि ! झर-झर बह जाये तू निर्झरी ।।


निर्झर, झर-झर-सी बह जाये
तू हाथ मेरे न कभी आये
क्यूँ  व्यर्थ ही करे परिश्रम जड़
जब अन्तर्मन भी नत जाये
कुछ रह जाये तू बह जाये
तेरी तीव्र धार सब दह जाये
राहें तेरी सँकरी- टेढ़ी
मन पीछा भी ना कर पाये
मै साधारण तू दिव्य कोई
रहस्य का पार भी क्या पाये
तेरी चाल दिव्य मै अक्षम अलग
तू साथ मुझे न कभी पाये
तेरी दयता पे हूँ निर्भर मै, हे दयावान ! हे देव-वरी !
तेरी गति अचल हे सौम्य-सरि ! झर-झर बह जाये तू निर्झरी ।।


कैसे तेरी पहचान करूँ
पल-पल धर ले तू रूप नया
कभी पूर्ण श्वेत-प्रस्तर तू लगे
कभी ज्वाल भरे है रूप तेरा
हर पल बहती तू हवा लगे
मुझको छू जाये अक्स तेरा
बह जाये धार जो स्वर्ण तेरी
चक्षु बंध जाये तू घना कुहरा
अम्बर के  घने श्रृंगार में तू
कभी झर जाये शीतल बदरी
कभी रंग जाये तू पुष्पों में
सब रंग लगे तेरी कज़री
बेबस करदे तू इंद्रधनुष को, नृत्य करे बनके चकरी
तू गुप्त रहे उसके सम्मुख, तू स्वर्ग से उतरी कोई परी


मन को जोड़े तू आतम से
क्या कोई रूप सुरा ने धरी
विचलित करदे संज्ञान मेरे
जब कंठ तरे मेरे उतरी
जस-जस तू मिले मेरे आतम से
तेरी हो जाये देह मेरी
मै पीता जाऊँ बस तुझको
सुर में जो मिली मुस्कान तेरी
मुस्कान, ठगी की क्रीड़ा में मैं
उलझा भटका हे निशा-अरि !
उत्कृस्ट अदा मनमोहकता
तू विरल सरस रस की गगरी
मद में तेरे जो रस गटका, सब आप संभाल हे सुरा मेरी !
तेरी गति अचल हे सौम्य-सरि ! झर-झर बह जाये तू निर्झरी ।।



द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 
दिनाँक - ०५.०५ .२०१७ 


















Tuesday 11 April 2017

।। ऋतु - गुहार ।।

आँखों का सोता सूखा है
मन में हलचल सी  बात नहीं
पिय रूठे तुम जबसे मुझसे
मेरे हिय गति का कुछ साथ नही।।

रिम-झिम के बादल चले गये, हिय तृप्ति मिली ना प्यास मिटी
कोरो से प्रवाहित अश्रु-सरि, तेरे प्रेम की अस बरसात बही
मैं रोज़ निहारूँ अम्बर को, मेरे आंगन की ओरें न तरी
यूँ काट गये झोंके तन को, जब बरसी ये बरसात अरि

कण - कण सृष्टि का शोभन है,
क्यूँ मेरी दहन का पार नहीं
पिय रूठे तुम जबसे मुझसे
मेरे हिय गति का कुछ साथ नही।।

मैं प्रेम रती का भोग करूँ, या कन्दर्प की पूजा हो
मैं हर अनुग्रह का कर्म करूँ, कोई धर्म बचा न दूजा हो
हर साधन को मैं साध चलूँ, हो वृहत बहुत या अनुजा हो
मन मन्मथ से यूँ तर जाये, सावन भी मेरा तनुजा हो

इस धरम - करम के ही बदले
पूरे हों मेरे काज सही
पिय रूठे तुम जबसे मुझसे
मेरे हिय गति का कुछ साथ नही।।

ऋतु आ  जाये फर्क नहीं, इस बेबसी का  कोई तर्क नहीं
जीवन की पगडण्डी सँकरी, किस ओर भी जाये हर्ज़ नहीं
ये कैसी बेकलता मुझमे, सुख - दुःख की जिसमे शर्त नहीं
दिन - दिन पसरे जो तक्षक - सी, हिय में जिसके कोई हर्फ़ नहीं

इस दीर्घ निरंतर फेरे से
मिल जाये कुछ आराम सही
पिय रूठे तुम जबसे मुझसे
मेरे हिय गति का कुछ साथ नही।।

नासमझी के इस बादल ने, छोड़ा है ना अभिमान कोई
इस  तर्क - वितर्क के खेमे में, साधे हैं स्वयं सचान कई
किस को लग जाये तीर यहाँ, मन में कुण्ठित व्यवधान कई
झगड़े की इस हठधर्मी में, मिल जाये कुछ संधान सही

घन की अरिता का मारा मै
ये राह मेरी आसान नहीं
पिय रूठे तुम जबसे मुझसे
मेरे हिय गति का कुछ साथ नही।।

मै  भी तो तेरा साधक था, आया तुझमे अंतर कैसा
ये भेद - भाव की आदत नव, तू ना तो कभी भी था ऐसा
तू सत्य बता दे अब मुझको,  मुझसे ही ऐसी फेरी क्यों
रखा जो मुझको अपनो मे, औ शर्त परायों के  जैसा

पिय ! आग लगा देती मुझमें
परिभाषा पराये - अपने की
पिय रूठे तुम जबसे मुझसे
मेरे हिय गति का कुछ साथ नही।।



द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - १२.०४.२०१७