Tuesday 11 April 2017

।। ऋतु - गुहार ।।

आँखों का सोता सूखा है
मन में हलचल सी  बात नहीं
पिय रूठे तुम जबसे मुझसे
मेरे हिय गति का कुछ साथ नही।।

रिम-झिम के बादल चले गये, हिय तृप्ति मिली ना प्यास मिटी
कोरो से प्रवाहित अश्रु-सरि, तेरे प्रेम की अस बरसात बही
मैं रोज़ निहारूँ अम्बर को, मेरे आंगन की ओरें न तरी
यूँ काट गये झोंके तन को, जब बरसी ये बरसात अरि

कण - कण सृष्टि का शोभन है,
क्यूँ मेरी दहन का पार नहीं
पिय रूठे तुम जबसे मुझसे
मेरे हिय गति का कुछ साथ नही।।

मैं प्रेम रती का भोग करूँ, या कन्दर्प की पूजा हो
मैं हर अनुग्रह का कर्म करूँ, कोई धर्म बचा न दूजा हो
हर साधन को मैं साध चलूँ, हो वृहत बहुत या अनुजा हो
मन मन्मथ से यूँ तर जाये, सावन भी मेरा तनुजा हो

इस धरम - करम के ही बदले
पूरे हों मेरे काज सही
पिय रूठे तुम जबसे मुझसे
मेरे हिय गति का कुछ साथ नही।।

ऋतु आ  जाये फर्क नहीं, इस बेबसी का  कोई तर्क नहीं
जीवन की पगडण्डी सँकरी, किस ओर भी जाये हर्ज़ नहीं
ये कैसी बेकलता मुझमे, सुख - दुःख की जिसमे शर्त नहीं
दिन - दिन पसरे जो तक्षक - सी, हिय में जिसके कोई हर्फ़ नहीं

इस दीर्घ निरंतर फेरे से
मिल जाये कुछ आराम सही
पिय रूठे तुम जबसे मुझसे
मेरे हिय गति का कुछ साथ नही।।

नासमझी के इस बादल ने, छोड़ा है ना अभिमान कोई
इस  तर्क - वितर्क के खेमे में, साधे हैं स्वयं सचान कई
किस को लग जाये तीर यहाँ, मन में कुण्ठित व्यवधान कई
झगड़े की इस हठधर्मी में, मिल जाये कुछ संधान सही

घन की अरिता का मारा मै
ये राह मेरी आसान नहीं
पिय रूठे तुम जबसे मुझसे
मेरे हिय गति का कुछ साथ नही।।

मै  भी तो तेरा साधक था, आया तुझमे अंतर कैसा
ये भेद - भाव की आदत नव, तू ना तो कभी भी था ऐसा
तू सत्य बता दे अब मुझको,  मुझसे ही ऐसी फेरी क्यों
रखा जो मुझको अपनो मे, औ शर्त परायों के  जैसा

पिय ! आग लगा देती मुझमें
परिभाषा पराये - अपने की
पिय रूठे तुम जबसे मुझसे
मेरे हिय गति का कुछ साथ नही।।



द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - १२.०४.२०१७