बीते कल का संदूक खोल
मैंने कुछ याद उधेड़ी है
सब धूल जमे लम्हे अमोल
की मैंने परत बिखेरी है
सम्मुख बहते पल सभी मेरे
जी डाला जिनको जल्दी में
स्मृति-प्रवाह पे रोक लगा
मैंने कुछ याद उधेड़ी है।।
पल बेपरवाह गुज़ार दिए
नादान पहर की धारों में
दुनिया से मिलाते चाल चला
अनजान समय के वारों में
मौका ना दिया जिन्हें एक टूक
सरपट भागे गलियारों में
ना सोच रुकाये कदम मेरे
राहें जाती अंधियारों में
हर गलियारे की कहानी से
मैंने अवशेष बटोरी है
स्मृति-प्रवाह पे रोक लगा
मैंने कुछ याद उधेड़ी है ।।
यादों के बुझे अवलोकन में
मैं मिला समय की बाहों में
चल रहा ना कोई साथ मेरे
प्रतिबिम्ब मेरी ही छाहों में
बेबाक़ी मुझमे भी ऐसी
नासमझ-सी मेरी निगाहों में
जिस दौड़ का प्रतिभागी मैं था
उस दौड़ में मैं बस राहों में
जीवन के भागम भाग से बस
एक धुँधली शाम बटोरी है
स्मृति-प्रवाह पे रोक लगा
मैंने कुछ याद उधेड़ी है ।।
सन्दूक मेरे बीते कल का
स्मृति तह में है सब लिपटे
मैं सरपट भागा राहों में
ये साथ चला पीछे-पीछे
मैं उड़ा ख्वाहिशों के नभ में
ये चला साथ नीचे-नीचे
सब भ्रम है या फिर सत्य सभी
ना प्रश्न कोई राहों से किये
बस हाथ मिलाकर चले चला
एक बार को ना देखा पीछे
उस अंध-दौड़ की पुष्तक से
मैंने कुछ पंक्ति निचोड़ी है
स्मृति-प्रवाह पे रोक लगा
मैंने कुछ याद उधेड़ी है ।।
द्रुत-गति पकड़ी उन राहों में
आँधी-सम भागम-भाग चला
नादान पथिक मैं भ्रमित डगर
पीछे छोड़े पद-चाप चला
सब चिन्ह संग्रहित जीवन के
विश्लेषण करने आप चला
खोये दो लम्हे पाने को
मैंने अतीत से ख़ाक छला
यादों की पगडण्डी सँकरी
पर मैंने पांव पखेरी है
स्मृति-प्रवाह पे रोक लगा
मैंने कुछ याद उधेड़ी है ।।
द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - ०७. ०९. २०१७