Friday 29 July 2016

।। मिला मुझको तुझमे ही जीवन मिला है ।।

तेरे साथ जीने को जन्मा हूँ प्रियतम,

जो तू न हो संग में तो दुनिया का क्या है ?

सफ़र ना कटेगा अकेले में मुझसे,

जो तू हो सफ़र में तो रस्ते का क्या है ?

चलूँगा मैं संग में ही तेरे मुसाफ़िर, मिला मुझको तुझमे ही जीवन मिला है।


गीले - शिक़वे जीवन के आधार से हैं,

चढ़ते - उतरते ये पतवार से हैं।

बदलने की क्षमता ना तुझमे ना मुझमे,

ये स्थिर प्रकीर्ति के व्यवहार से हैं।

तेरे साथ होने से रस्ता खुला है, मिला मुझको तुझमे ही जीवन मिला है।


तेरे हाथों में दी है जीवन की डोरी,

हिय से बंधी जो तेरे संग मेरी।

महशुस करले ओ मेरी चकोरी !

मैं चँदा हूँ तेरा जो लूँ तेरी फेरी।

जीवन जो संग बढ़ने का सिलसिला है, मिला मुझको तुझमे ही जीवन मिला है।


साथी मेरे मैं तुझे क्या बताऊँ,

तेरे साथ ही अपनी दुनिया मैं पाऊँ।

जो जीने का मतलब मुझे कुछ पता है,

वो तेरी ही छाया में जीता मैं जाऊँ।

उन राहों का क्या जो मैं तुझसे ना जाऊँ,

मैं खुदको सदा तेरी गलियों में पाऊँ।

जीवन का आधार तुझसे चला है, मिला मुझको तुझमे ही जीवन मिला है।


तेरी मुझसे क्यूँ ये नाराज़गी है,

करी मैंने तुझसे ही की दिल्लगी है।

साँसों की मेरे तुही बन्दगी है,

जो है तू तो मुझमे चली जिंदगी है।

तेरा प्रेम मेरी रगों में बहा है, मिला मुझको तुझमे ही जीवन मिला है।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - २९. ०७. २०१६ 








Saturday 23 July 2016

।। मै प्रेम - पथिक बस चल निकला ।।

मैं जड़ सुमेरु -सा अडिग अचल, प्रस्तर - सम  मेरा ह्रदय हुआ

जब बात विछोह की तूने कही, मन मेरा व्याधित - विकल हुआ

अब बरसूँ या तब बरसूँ मैं, मेरा मर्म कहूं मैं किसे भला

सारे जग से ही विरक्त कहीं, मैं राह में ऐसे हूँ निकला ।।


आ चल तू मेरे साथ चलें, उस दूर क्षितिज पे चल निकलें

जहाँ तेरी - मेरी डगर मिले, उस चौराहे पे फिर से मिलें

कुछ बात करेंगे मिल करके, ख़ामोशी- सी यूँ पिरोयी है

तेरी मधुर ध्वनि इन कर्णो में जाने कबसे न संजोयी है

हे हमराही ! पहचान मेरी, मैं तेरी धुन में बस फिसला

इस राह की कोई डगर नही, मै प्रेम - पथिक बस चल निकला ।।  


जब चलना तुझ संग जीवन है, पग थमे नही फिर कभी कहीं

जब राह रुके आगे जाकर, तो जीवन रेखा थमे वहीं

कुछ बात है तुझ संग चलने मे, जीवन की गति रूकती ही नही

तू हाथ पकड़ कर चले जहाँ, मैं खींचता जाऊँ वहीं - वहीं

तुझ सम पथ - निर्देशक पाकर, मैं प्रेम - डगर पे चल निकला

जीवन गाड़ी - सम दौड़ पड़ी, इस मार्ग में मुझको तू जो मिला ।।       


हे साथी ! पथ के राह मेरी, ज़रा झंझातो से जाती है

कुछ सँकरी गलियों से मुड़कर, फिर अपनी राह बनाती है

कुछ कोन पर्वतों के लाँघो, फिर नदियाँ बहती जाती हैं

फिर सागर से एक कुण्ड में ये, झर् - झर् करके गिर जाती है

विचलित ना होऊँ मार्ग में मैं, तू धैर्य बंधाता चल निकला

है मार्ग कठिन जो जीवन की, फिर भी मैं तुझ संग बढ़ता चला ।।     



चल मुझमें कुछ साहस भर दे, और धैर्य की तू भी दंभ लगा

चल देंगे दोनों फिर संग में, वो आगे पर्वत बुला रहा

सँकरी गलियों की तीव्र हवा, हू - हू करके दें ह्रदय कपा

नदियों की झर् - झर् मधुर ध्वनि से, राह की अटकल दूर भगा

ये राह ही मंजिल जायेगी, अब चल तू हाथ  में हाथ मिला

नदियाँ उफनी पर्वत लाँघा, मैं कर्म - पथिक बस चले चला ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - २३. ०७ . २०१६ 




                                    

।। प्रेम - वेदना ।।

अति कठोर है ये जीवन, तुझ बिन जीना नीरस-सा लगे
कुछ कमी-सी हर छण टीसती है, ये ज्वलित-ज्वार आतिश लगे
पग-पग धँसते हैं प्रस्तर से, कंट चुभे हर छण जैसे
हूँ कठिन पहर की बेरी में, मन व्याधित तेरी वेदना से
मुझ प्रस्तर की प्रतिमूर्ति में, जो लाव बराबर हैं धधके
मैं ज्वालमुखी सा अंतर में, हिय् आग बुझाऊँ अब कैसे।।

इसकी दमघोंट धुम्र-श्वसन, घेरे हैं मुझे बंधक से वसन
दिव को न मुझे आराम कोई, रात्रि जले स्मृति में जलन
उन स्मृतियों की ढेरी से, मैं ढूँढू तुझको सर्वप्रथम
तू मिले नहीं मैं व्याकुल हूँ, तू छिपी कहाँ हे जलज्-नयन !
मैं रोज़ जलूँ तुझ बिन ऐसे, यूँ शिशिर-अलाव जले जैसे
प्रियतम! अब तू ही बता जैसे, हिय् आग बुझाऊँ अब कैसे।।

प्रति पहर ये अंतर करे हवन, मंथन ही करे बावरा मन
ये आग जो तेरी अमिट लगी, वो शीत न हो ना बुझे जलन
मैं खुद को जला-जला करके, तुझमे मिल जाऊँ मेरे प्रियतम
मेरा जीव विसर्जित हो तुझमें, कैसा होगा वो पूर्ण-मिलन
उस मिलन-राह जो आस लगी, उस राह को पाऊँ मैं कैसे
हे दिव्य ! जलूँ मैं जन्मों से, हिय् आग बुझाऊँ अब कैसे।।

है ज्वलित गर्त धरा अबतक, जले चन्द्र-सूर्य नभ में कब तक
ये अग्नि ज्वलित हिय् में तबतक, मेरी श्वसन चले मुझमे जब तक
मैं पंचतत्व का अंश मनुष्य, मैं जलूँ निरन्तर जीवन तक
मैं तुझमे मिलके रे प्रियतम! मेरी लौ को बढ़ाऊँ अब कैसे
ज्यों घोर अँधेरा लौ में मेरी, हिय् आग बुझाऊँ अब कैसे।।

हे प्रीत ! मेरी  जलजा इतना, अस्तित्व मेरा ना रह जाये
मैं जाना जाऊँ प्रेम से ही, बाकी न कहीं कुछ दर्शाये
जब प्रेम का नाम कही जग में, या लेखों में भी पढ़ा जाये
प्रीतभिलाषा उच्चारण, सबके कर्णो में ही जाये
ख्याति की चाह नही मुझको, बस प्रेम की चाह मिले ऐसे
मैं प्रेम-अग्नि में जलूँ सदा, हिय् आग बुझे मेरी तुझसे ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - २३ . ०७ . २०१६














Friday 22 July 2016

। । मेरी कहानी । ।

मेरी प्रीत तुझसे ना झूठी कभी थी

करुँ प्रेम तुझसे ही कैसे बताऊँ

हे प्रिय ! तुम मेरी आत्मा मे हो बसती

जो जीवित हूँ तुझ बिन ये कैसे बताऊँ

मेरे गीत जीवन के तुझ बिन अधुरे, जहाँ कल्पना हो मैं तुझको ही पाऊँ

प्रिये ! ज़िन्दगी की  किताबों में तुझ संग, मै अपनी कहानी की कड़ियाँ बिताऊँ।



मै खोया हूँ पन्नों मे तुझ संग युगों से

चलूँ संग तेरे ही तेरी डगर पे

निकालूँ क्यूँ खुद को तेरे आश्रय से

ये जीवन-कहानी है पूरी हो तुझसे

प्रिये ! ये कथा प्रेम की जो चली है, उसे तुझपे ही मैं ख़तम करके जाऊँ

प्रिये ! ज़िन्दगी की  किताबों में तुझ संग, मै अपनी कहानी की कड़ियाँ बिताऊँ।



तेरा साथ ना तेरी छाया मिले जो

कल्पना के ही पन्नों में मुझ संग जिए यों

मैं जीवन  को अपने वहीं जाके जीलूँ

जहाँ तेरी बस्ती हो सब मे तुही हो

मैं देखुँ जहाँ भी तेरा दृश्य दरशे

तू अम्बर में भी हो धरा भी तुम्ही हो

मैं बादल हूँ प्रेमी बरसता जो तुझपे, जो ना तू मिले तो यूँ ख़ाली मडराऊँ

प्रिये ! ज़िन्दगी की  किताबों में तुझ संग, मै अपनी कहानी की कड़ियाँ बिताऊँ।



प्रेमी तेरा जो मैं सदियों से ही हूँ

तेरे संग को ऐसे कैसे भुलादूँ

तुझसे जुड़ा जो मै सदियों से ही हूँ

पल भर में सदियाँ वो कैसे मिटा दूँ

जीवन के पन्नो से अपनी कहानी को

यूँ फाड़ के मैं अनल में मिला दूँ

प्रिये ! जीव मेरा जो जिता है तुझसे

उसे बिन तेरे मैं यूँ कैसे जिलाऊँ

मिला सातवाँ ये जनम तेरे संग है, इसे मैं यूँ कैसे ही ऐसे गवाऊँ

 प्रिये ! ज़िन्दगी की  किताबों में तुझ संग, मै अपनी कहानी की कड़ियाँ बिताऊँ।



द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - २३.०७.२०१६ 

Thursday 7 July 2016

।। उस सागर से कुछ बूँद प्रिये, स्नेह-अश्रु अर्पण कर जाये ।।

हर रात्रि जगे आँखों में तेरी, तेरी स्मृति मे ये खो जाये 

जब तू समीप-सी होती है, उस छण को हर पल दोहराये 

सागर-सम विस्तृत भाव मेरे, बिन कहे ही काल गुज़र जाये 

उस सागर से कुछ बूँद प्रिये, स्नेह-अश्रु अर्पण कर जाये ।। 


मै आवारा तम मे खोया, है रात्रि पहर मे जगा-सोया

मेरा मन दौड़े द्रुत-गति पाकर, तू मिले न कही व्याकुल-सा हुआ 

जो मिले कही चक्षु थम जाये, तुझे देख-देख ये नम जाये 

मै हर्ष उठूँ मन भ्रम जाये, तेरे नयन मेरे संग ठन जायें 

उस मिलन से कुछ यादें लेकर, हे प्रिये ! मेरा मन सम जाये 

उस सागर से कुछ बूँद प्रिये, स्नेह-अश्रु अर्पण कर जाये ।। 


तुम रूठ गयी जबसे मुझसे, मै  विफल-विकल सा भ्रमण करुँ 

सत् -भौर मे कुंठित हृदय मेरा, मै मार्ग मे तेरी राह तकूँ 

हे प्रेम मेरी ! तू उबार मुझे, मेरे व्रत का मै निर्वाह करूँ 

तेरे प्रीत की भेंट भभूत लगा, तेरी छाया का श्रृंगार करूँ 

ये काल रात्रि आने से तेरी, स्मृतियाँ संग-संग सध् जाये 

उस सागर से कुछ बूँद प्रिये, स्नेह-अश्रु अर्पण कर जाये ।। 


हे काव्य ! यदा तू परिचित है, मेरे हिय् का भाव सुना उसको 

जो तू मुझसे प्रतिदर्पित है, मेरे विरह का हाल बता उसको 

तू वार्त मेरी उसके समक्ष कुछ ऐसे प्रस्तुत कर देना 

मेरी सुबह से लेकर साँझ सभी,  तू उसके हिय में गह देना 

कहना उससे आलिंगन हो, जड़ मन चेतन में आ जाये 

उस सागर से कुछ बूँद प्रिये, स्नेह-अश्रु अर्पण कर जाये ।। 


हे निशाकर! तेरी तीव्र चमक भी, धूमिल पड़ी गहरी-सी लगे 

क्यूँ अर्क -किरण ने भी तुझको, अपनी रश्मि से विलग किये 

कितनी कठोर ये बेरी है, जिसमे हम दो अभिश्राप लगे 

तेरी दशा दृस्टिगत मै जो करुँ, मुझे अपनी सी कुछ बात लगे 

सब मधु-शीतल स्वप्नों में रमे, और हम दोनों पिय राह तके 

चल अपनी व्यथा का हाल बता, आ हम दोनों कुछ बात करे 

प्रति-रैन यहाँ ही आकरके मै उसे स्मरण करता हूँ 

तेरे शीशमहल के दर्पण में  मै उसके दर्शन करता हूँ 

प्रिये ! जबसे अमावस काल भयी, छवि दर्शन को भी तरस जाये 

उस सागर से कुछ बूँद प्रिये, स्नेह-अश्रु अर्पण कर जाये । 



द्वारा - अविलाष  कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - ०७ / ०७ / २०१६ 

















Monday 4 July 2016

।। प्रेम-पथिक ।।

ये रातें भी कम अब तो पड़ने लगीं , लगन मुझको तुझसे ही ऐसी लगी। 

हृदय मेरे तू मुझको मिल जा अभी, विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।


ज़रा सा तू करले नज़र इस तरफ, 

मैं देखूँ तुझे तेरी आँखों में बसके,

शहर ख़ाली मेरा हुआ तेरे बिन  है,

मैं बस जाऊँ तुझमे तेरे जैसा बनके।   

भँवर में मिलूंगा तू आजा वहीं, विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।


                                                  पता  ना चले मुझको ऐसी जगह दे,

                                                  स्वपन में ही रखले ना कोई विरह दे,

                                                 अकेला-सा हूँ मैं तू अपना समझले,

                                                 उम्र भर  के लिए मुझको बाँहों में करले,

                                                 तू बाँहों में भरले, मुझे अपना करले,

                                                 मैं रह जाऊँ तेरा, तू कुछ ऐसा करले।

                                                श्वासें हैं गुम-सी, ख़फ़ा -सी कहीं, विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।


यूँ रातों की कजली में ढूँढ़े तुझे दिल,

तू चंदा की उजली में आजा मुझे मिल,

बारिश-सी पड़ जा मुझपे तू झिलमिल,

बूँदों को तेरी तरसा मै तिलतिल।

मै बादल आवारा जो बरषा नहीं, विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।


                                             अब रातों की कालिख भी छटने लगी है,

                                              प्रतीक्षा भी अब और बढ़ने लगी है,

                                              मैं व्याकुल-सा भटकूँ तिमिर में नीरा-सा,

                                              तेरी चाहते मुझसे अड़ने लगी हैं। 

                                               मैं तुझको पुकारूँ तू खोई कही, विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।


हे रात्रि ! तू मेरी व्यथा को समझले,

मैं मिल जाऊँ उससे ज़रा सा ठहरले,

उजाला ना होवे तू सूरज को ढकले,

कर कुछ जतन जो मेरी चाह रखले,

मेरी आस तू , ज़रा बात रखले,

प्रेम-पथिक राही की तू चाह रखले।

हे प्रिय मेरी तू देर कर अब नहीं,  विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।


ये रातें भी कम अब तो पड़ने लगीं , लगन मुझको तुझसे ही ऐसी लगी। 

हृदय मेरे तू मुझको मिल जा अभी, विवश मैं यहाँ तू दिखे ना  कहीं ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - ०४. जुलाई . २०१६