Saturday 9 May 2020

।। The Death of Hyperbole ।।

ना पुष्प हो तुम ना कोई कली 
ना आसमान से आयी हो 
तुम भी मनुष्य की छाया हो 
हाँ तुम भी बस परछायीं हो।।

दिन-रात प्रमाणों पे मरना 
ये चाँद-सितारों में गणना 
तुम हार-सी नहीं जाती हो? 
बेवज़ह की सब बातें करना 
प्रतिमान के जिस आकाश में तुम 
सदियों से गयी डुबायी हो 

तुम भी मनुष्य की छाया हो 
हाँ तुम भी बस परछायीं हो।।

है याद मुझे वो घड़ी भली 
जब पहले-पहल तुम गयी छली 
उपमान भी उस दिन रोया था 
जब तुम हिरणी की चाल चली 
अपने सागर से आँखों में 
क्या सच में उसे डुबायी हो? 
तुम भी मनुष्य की छाया हो 
हाँ तुम भी बस परछायीं हो।।

कोई मिलन को जब तुमसे तरसा 
तुम बरस पड़ी बनके बिजली 
कुछ के अरमान के सपनों में 
विचरण करती बनके तितली 
झूठे बाज़ार की बीच खड़ी 
ये क्या पहचान बनायी हो?
तुम भी मनुष्य की छाया हो 
हाँ तुम भी बस परछायीं हो।।

कैसे कहदूँ तुमको धारा 
बहता जाऊँ बन आवारा 
प्रिय हो मुझको ये ज्ञात तुम्हें 
क्यों है बनना तुमको सितारा?
हैं व्यर्थ तुम्हें उपमान सभी 
हैं निराधार ये प्रमाण सभी 
लिखने वाले सब चले गये 
तुम बन्धक बनकर यहीं रमी 
ये व्यर्थ प्रशंशा लत छोड़ो 
क्यूँ खुद को तुम फुसलायी हो 
तुम भी मनुष्य की छाया हो 
हाँ तुम भी बस परछायीं हो।।

तुम हो बस अपने ही जैसी
ना कोई हवा ना कोई नदी 
तुम हो मनुष्य का अर्ध अंश 
है पुरुष जो दूजा भाग सही 
आओ समानता अपना लें 
कोई बिच ना अपने खाई हो 
तुम भी मनुष्य की छाया हो 
हाँ तुम भी बस परछायीं हो।।

द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 
दिनाँक - ०९ . ०५ . २०२०