Saturday 23 July 2016

।। प्रेम - वेदना ।।

अति कठोर है ये जीवन, तुझ बिन जीना नीरस-सा लगे
कुछ कमी-सी हर छण टीसती है, ये ज्वलित-ज्वार आतिश लगे
पग-पग धँसते हैं प्रस्तर से, कंट चुभे हर छण जैसे
हूँ कठिन पहर की बेरी में, मन व्याधित तेरी वेदना से
मुझ प्रस्तर की प्रतिमूर्ति में, जो लाव बराबर हैं धधके
मैं ज्वालमुखी सा अंतर में, हिय् आग बुझाऊँ अब कैसे।।

इसकी दमघोंट धुम्र-श्वसन, घेरे हैं मुझे बंधक से वसन
दिव को न मुझे आराम कोई, रात्रि जले स्मृति में जलन
उन स्मृतियों की ढेरी से, मैं ढूँढू तुझको सर्वप्रथम
तू मिले नहीं मैं व्याकुल हूँ, तू छिपी कहाँ हे जलज्-नयन !
मैं रोज़ जलूँ तुझ बिन ऐसे, यूँ शिशिर-अलाव जले जैसे
प्रियतम! अब तू ही बता जैसे, हिय् आग बुझाऊँ अब कैसे।।

प्रति पहर ये अंतर करे हवन, मंथन ही करे बावरा मन
ये आग जो तेरी अमिट लगी, वो शीत न हो ना बुझे जलन
मैं खुद को जला-जला करके, तुझमे मिल जाऊँ मेरे प्रियतम
मेरा जीव विसर्जित हो तुझमें, कैसा होगा वो पूर्ण-मिलन
उस मिलन-राह जो आस लगी, उस राह को पाऊँ मैं कैसे
हे दिव्य ! जलूँ मैं जन्मों से, हिय् आग बुझाऊँ अब कैसे।।

है ज्वलित गर्त धरा अबतक, जले चन्द्र-सूर्य नभ में कब तक
ये अग्नि ज्वलित हिय् में तबतक, मेरी श्वसन चले मुझमे जब तक
मैं पंचतत्व का अंश मनुष्य, मैं जलूँ निरन्तर जीवन तक
मैं तुझमे मिलके रे प्रियतम! मेरी लौ को बढ़ाऊँ अब कैसे
ज्यों घोर अँधेरा लौ में मेरी, हिय् आग बुझाऊँ अब कैसे।।

हे प्रीत ! मेरी  जलजा इतना, अस्तित्व मेरा ना रह जाये
मैं जाना जाऊँ प्रेम से ही, बाकी न कहीं कुछ दर्शाये
जब प्रेम का नाम कही जग में, या लेखों में भी पढ़ा जाये
प्रीतभिलाषा उच्चारण, सबके कर्णो में ही जाये
ख्याति की चाह नही मुझको, बस प्रेम की चाह मिले ऐसे
मैं प्रेम-अग्नि में जलूँ सदा, हिय् आग बुझे मेरी तुझसे ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - २३ . ०७ . २०१६














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