Saturday 6 May 2017

।। संघर्ष ।।

मन मे ना अब कुछ चाह रही
कुछ मंजिल ना अब पाने को
जीवन  के सब रंग छोड़ चला, तेरे रंग में अब रंग जाने को ।।
हिय आवारा हठ कर बैठा, तेरे संग जीवन जी जाने को ।।


ये घनीभूत है प्रीत में तेरी 
आज बरस सब जायेगा
ये आवारा क्यूँ समझे ना
जो तुझपे ही मँडरायेगा
जीवन सागर से प्रीत की वर्षा
तुझपे ही कर जायेगा
मिल जाये जितने चोट इसे
ये कुम्भ तभी बन पायेगा
इसको ना मज़ा जीवन में कुछ, बस तेरी धुनी रमाने को ।।
हिय आवारा हठ कर बैठा, तेरे संग जीवन जी जाने को ।।


विलुप्त हुआ वैरागी मन,
ना होश इसे है दुनिया की
सब छोर करे ये नादानी,
परवाह करे ना अपनी भी
ये मस्त हुआ है किस मद मे
मै जान सकूँ ना इतना भी
स्वामित्व मेरा है इसपे पर
है काम करे ये अपना ही
दर्शन की बातें क्या मै करूँ, जो इसका मन भरमाने को ।।
हिय आवारा हठ कर बैठा, तेरे संग जीवन जी जाने को ।।


एहसान करे तू ही इतना
जो इसको बस ये समझा दे
इसकी बेमानी चाल से अब
आज़ादी मुझको दिलवा दे
ना सुनता मेरी रत्ती भर
एहसास इसे कुछ करवादे
दिवाने के दिवानेपन का
कोई जतन तो करवादे
थक-हार गया बेगाने से, ना सबक रही समझाने को ।।
हिय आवारा हठ कर बैठा, तेरे संग जीवन जी जाने को ।।


चौपाल लगाये हिय-बैरी
बातें ज्ञानी-सा करता है
सुःख-दुःख का क्रम समझा रहा
जीव-मरण की चर्चा है
दिवाने की इस महफ़िल में
यथार्थ मेरा क्या करता है
इसकी बातें ना भली मुझे
ना मेरी ये कुछ करता है
बालक अबोध ये बन बैठा
मेरी-इसकी परिचर्चा है
दे देता ये आधार कई, बातें अपनी मनवाने को ।।
हिय आवारा हठ कर बैठा, तेरे संग जीवन जी जाने को ।।


कब तक झेलूँ मै इसे भला
क्या इसका मै परित्याग करूँ
हठधर्मी हिय की चाहत का
क्यूँ ना अब मै परिहास करूँ
दूँ ज़ला ख्वाहिशें इसकी सब
इसकी धड़कन पे दाब धरूँ
भौतिकता के इस भगदड़ मे
अपने मन पे ही ताप करूँ
क्या मिलना मुझको भावों से
भौतिक युग में अपवाद बनूँ
ना मुझसे ये सब ना होगा
हिय मेरे! तेरा त्याग करूँ
मज़बूरी मेरी समझे तू, आया युग निर्वसन पाने को ।।
हिय आवारा हठ कर बैठा, तेरे संग जीवन जी जाने को ।।


द्वारा: अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक: ०६.०५.२०१७

















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