Sunday 3 December 2017

।। आवारा बादल ।।

है भरा-भरा उन्माद धरा
हर दिवस वही है चहल-पहल
हर वार भीड़ में दबा हुआ
बीते हर आने वाला कल
सिमटा सँकरा आश्रय तेरा
मैं हिस्सा इसका एक अटल
है कर्मभूमि ये शहर मेरा
मैं  इसका आवारा बादल।।

मँडराते मेघ सम मैं भटकूँ
अम्बर वृस्तित है पटल तेरा
सीधा, सपाट ना समतल तूँ
ऊँचा-नीचा, सँकरा, गहरा
तेरे ज्वार-भाट में बहे चलूँ
वारिद बूँदें जो दें नहला
झंझावात निस दिन देख तेरे
हिय का कोना-कोना दहला
कम पड़ जाये ये छत तेरी
जब ताप गिरे रवि-रश्मि विरल
है कर्मभूमि ये शहर मेरा
मैं  इसका आवारा बादल।।

लहरों पे मचलते शहर में इस
पतवार धरे हैं कुछ मैंने
हैं शक्ति समेटे सब मिलकर
मझधार तरे हैं कुछ मैंने
मुस्कान में कुछ, कुछ नमी-नमी
हर शाम भी ढल ही जाती  है
लड़ते-लड़ते मझधारों से
तकरार जमाई है मैंने
एक दिन उभरेगी परछाई
सँकरी गलियों को चीर निकल
है कर्मभूमि ये शहर मेरा
मैं  इसका आवारा बादल।।

लूटी है बहुत खुशियाँ  मैंने
बेबाक शहर की महफ़िल में
कुछ लूट लिया इसने मुझको
बेमानी भी इस सङ्गदिल में
लाखों हैं खड़े सड़कों पे मगर
सब तन्हा अपनी मंजिल में
ना ख़बर किसी को कोई यहाँ
दीवार बँधी है हर दिल में
अनदेख गुज़र जाता हूँ मैं
बिन पूछे तेरा हाल निकल
है कर्मभूमि ये शहर मेरा
मैं इसका आवारा बादल।।

बदले इसका चेहरा हर छण
प्रतिपल बढ़ता आकार नया
परिवर्तित करदे अपने सम
पड़ती जिसपे इसकी छाया
सब बौंर-बाग़ कर दिये ख़तम
हर गाँव को बस्ती बना दिया
अब शहर मेरा विस्तृत इतना
आधार को अपने जला दिया
बढ़ती आबादी भार तले
बदली काया है आज पटल
है कर्मभूमि ये शहर मेरा
मैं  इसका आवारा बादल।।


द्वारा- अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - ०२. १२. २०१७





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