तुम हो निहार जो मुझे कभी फ़ुरसत में छक कर दिखी नहीं,
तेरे नयन से जब सम्बन्ध बने होने लगती है लुका - छिपी।
जब पूर्ण-इंदु दरशा ही नहीं तो व्यथा किसे मैं कहुँ किसे,
तुम चपल हो इतनी नयनों से, चपला भी तेरी कायल बनी।
नित-नव्या, नित-नवीन जो तुम कौतुहल हिय में देती हो,
जब दृश्य तुम्हारा ओझल हो मन उद्वेलित कर देती हो।
मन को भेदा हिय घायल है जब घात विलुप्त-सी देती हो ,
तुम जीवन की हर सांस को अब प्रेरणा कैसे देती हो।
घन-कजरे-बदरे नैन तेरे चक्षु-दृश्यम को व्यवधान करे,
तेरी मायावी विकिरण तन से मेरे अन्तर्मन को हानि करे।
तुम सम्बन्धित हो आदिम से या परलोक की कड़ी कोई,
जो मुझसे नेत्र-मिलाप कर, कर रही हो तुम सन्देश कहीं।
जो भी हो चक्षु-दर्शन दो, हृदय-उदगार को तृप्त करो,
मन लगे निरन्तर तुममे ही, अब ओझलता को भंग करो।
तेरे परिचय की असमंजस में मेरे दिवस - रैन की चैन छिनी,
अब शत्रु -मित्र सब बिसर गये तेरी चिंता मेरी प्रथम बनी।
तुम वसुधा-सम वृस्तृत समस्त्र, मै चन्द्र - परिक्रम हूँ तेरी,
निज भोर जो छुप जाये मुझसे मैं रात्रि-मिलन के जतन करुँ।
हे सुन्दर ! कन्ज - नयन नारी ! मेरी व्यथा का अब भंजन भी करो,
मैं जनम-जनम से पथिक तेरा मेरे कर्म-मार्ग का अंत करो।
अब समय का करके ध्यान मेरे, दृस्टिगत दिव्य - विलिन करो,
चक्षु भर जाये वो कर्म करो, मम् आत्म - तरन का मर्म करो।
मुझे आतम में सम्मिलित करके, मेरी भौतिकता को भंग करो।
मै चिर - अग्रसर पथ पे तेरी, मेरी व्याकुलता को शांत करो।
मेरी व्याकुलता को शांत करो। मेरे जनम - व्रत को अर्थ करो।
मुझे चिर - अन्त प्रदर्शित कर, मेरे जीवन को तुम धन्य करो ।।
द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - १४ . ०८ . २०१५
तेरे नयन से जब सम्बन्ध बने होने लगती है लुका - छिपी।
जब पूर्ण-इंदु दरशा ही नहीं तो व्यथा किसे मैं कहुँ किसे,
तुम चपल हो इतनी नयनों से, चपला भी तेरी कायल बनी।
नित-नव्या, नित-नवीन जो तुम कौतुहल हिय में देती हो,
जब दृश्य तुम्हारा ओझल हो मन उद्वेलित कर देती हो।
मन को भेदा हिय घायल है जब घात विलुप्त-सी देती हो ,
तुम जीवन की हर सांस को अब प्रेरणा कैसे देती हो।
घन-कजरे-बदरे नैन तेरे चक्षु-दृश्यम को व्यवधान करे,
तेरी मायावी विकिरण तन से मेरे अन्तर्मन को हानि करे।
तुम सम्बन्धित हो आदिम से या परलोक की कड़ी कोई,
जो मुझसे नेत्र-मिलाप कर, कर रही हो तुम सन्देश कहीं।
जो भी हो चक्षु-दर्शन दो, हृदय-उदगार को तृप्त करो,
मन लगे निरन्तर तुममे ही, अब ओझलता को भंग करो।
तेरे परिचय की असमंजस में मेरे दिवस - रैन की चैन छिनी,
अब शत्रु -मित्र सब बिसर गये तेरी चिंता मेरी प्रथम बनी।
तुम वसुधा-सम वृस्तृत समस्त्र, मै चन्द्र - परिक्रम हूँ तेरी,
निज भोर जो छुप जाये मुझसे मैं रात्रि-मिलन के जतन करुँ।
हे सुन्दर ! कन्ज - नयन नारी ! मेरी व्यथा का अब भंजन भी करो,
मैं जनम-जनम से पथिक तेरा मेरे कर्म-मार्ग का अंत करो।
अब समय का करके ध्यान मेरे, दृस्टिगत दिव्य - विलिन करो,
चक्षु भर जाये वो कर्म करो, मम् आत्म - तरन का मर्म करो।
मुझे आतम में सम्मिलित करके, मेरी भौतिकता को भंग करो।
मै चिर - अग्रसर पथ पे तेरी, मेरी व्याकुलता को शांत करो।
मेरी व्याकुलता को शांत करो। मेरे जनम - व्रत को अर्थ करो।
मुझे चिर - अन्त प्रदर्शित कर, मेरे जीवन को तुम धन्य करो ।।
द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - १४ . ०८ . २०१५
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