Wednesday 22 June 2016

।। अनल ।।

हिय ! मेरे जला-बुझा-सा  तू क्यूँ  जिया जाये,
ये जिन्दगी से वार तेरी, मुझको समझ ना आये।।
डूबा-सा है क्यूँ खुदमे ही,
भटका  लगे  ख़बर नहीं,
ज़ोर क्यूँ अपने हृदय पे , तू  बढ़ाता जाये।
ये जिंदगी से वार तेरी, मुझको समझ ना आये।।

क्यूँ तू ज्वलन छिपा रखे,
क्यूँ तू घुँटन बढ़ा रखे,
धुँए के धुंध में क्यूँ तू ,
श्वांस को चढ़ा रखे,
तेरे तपिश की आहटें ,
जली-जली-सी सिलवटें,
उफ़ान के शिख़र पे क्यूँ ,
ज्वाले की गरम लपटें,
तेरी अनल से मेरा, हृदय भी झुलसा जाये।
ये जिंदगी से वार तेरी, मुझको समझ ना आये।।


तेरे भावों की लुका-छिपी,
हों जैसे मुझसे खेलती,
ज़ुबान मौन-सी  सदा,
जड़-सी  है  मेरे  प्रति,
सनै-सनै तू मुझमें भी, क्यूँ पैठ करता जाये।
ये जिंदगी से वार तेरी, मुझको समझ ना आये।।


तू बाँवरा-सा  क्यूँ  लगे,
अपनी ही धुन में क्यूँ रमे,
पाग़ल तू हस्त दीप पे,
खुद ही रखे, खुद ही जले,
जलने की ये अदा अज़ब, किससे कहें-बतायें ।
ये जिंदगी से वार तेरी, मुझको समझ ना आये।।


जिंदगी की ख़ोज में,
जले क्यूँ अपनी मौज़ में,
जले तू अपनी सोंच में,
आज कल हर रोज़ में,
विफ़ल-विकल बुझा लगे,
तू मुझको ज़लज़ला लगे,
जला के तुझपे मैंने करली ख़ुद से ही लड़ाई।
ये जिंदगी से वार तेरी, मुझको समझ ना आये।।





द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - २२.०६.२०१६









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