Thursday 23 June 2016

।। चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।

चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ

मैं मंजिल को अपनी क्षितिज़ पा रहा हूँ

चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।


जगत की वृहत उलझनों ने है घेरा

हैं गहरी ये रातें, है कुहरा सवेरा

घुमरे भवँर ने  मुझे  ऐसा घेरा

बताओ कहा पे छुपा अक्स मेरा

वृहत हो तुम  इतने मैं घबरा रहा हूँ, चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।


तुम्हारी ये मुझसे है कैसी लड़ाई

चढ़ाया शिखर पे अब दिखती है खाही

घनेरे भँवर की ये टेढ़ी चढ़ाई

ये दुविधा ने मेरी कहा मुझको लाई

उबारो मुझे अब मैं  उफना रहा हूँ, चले जा रहा था, चले झा रहा हूँ ।।


घनी काली रातों की कालिख - सी बदली

मेरे अन्तर्मन मे है कौधे - सी बिजली

व्याकुल करे मन हिय चीर निकली

मानवीय आशा की भी आह निकली

मै काया को अपनी क्षीण-सा पा रहा हूँ, चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।


हरित पुष्प घाटी भी जर्जर लगे क्यूँ ?

शबनम-सी बारिश भी थर - थर करे क्यूँ ? 

ये सँकरी -सी जालो में मैं हूँ फसा क्यूँ ?

न जाने की आतम को ऐसी सज़ा क्यूँ ?

खुद के ही पग-चिन्ह मैं ना पा रहा हूँ, चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।


मेरे आत्म-शक्ति की ऐसी परीक्षा

मेरे हर घड़ी की ये गूढ़ सी समीक्षा

तेरी अड़चनों की ये बिन मांगे भिक्षा

दमन कर रही मेरी हर शक्ति इच्छा

तेरी तीव्र अग्नि में जल जा रहा हूँ, चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।


ठहर थोड़ा मैं आत्म-मंथन हूँ करता

मेरी शक्तियों का मै संगठन करता

तेरा अंश हूँ मैं दिखा अपनी भयता

निबर जाऊँगा मैं नहीं तुझसे डरता

तेरी आफतों का चक्रव्यूह भेद करता

निडर-सा समर मैं चंचल सम् चपलता

मनुष्यता का वर मैं समझ पा रहा हूँ, चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।


मेरी शक्ति -संचित पे तेरी असर क्या ?

विवश करदूँ तुझको मैं स्थिर अचल-सा

मैं कंट-पथिक राही भँवर का मसीहा

तू संतुष्टि करले मैं आदी हूँ तेरा

तेरी आपदाओं से बार जाऊँगा मैं

तू जा आजमाले निबर जाऊँगा मैं

तेरी हर परीक्षा को हल जाऊँगा मैं

तू कुम्भार मेरा तो गढ़ जाऊँगा मैं

खरा हर कसौटी पे मैं जा रहा हूँ, चले जा रहा था, चले जा रहा हूँ ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - २६.०३.२०१६







2 comments: