Thursday 23 June 2016

II अन्तर्मन II

मेरे दर्द के उस तार को तुम यूँ न जगा देना,
की मेरी आँखों से ये आंसू बड़ी मुश्किल से निकलते हैं।।
                               
                                बड़े ही राज़ दफने हैं मेरी आँखों की  कोरों में,
                                की शोले रोज़ इस दिल में उफनते हैं मचलते हैं।

करे परवाह क्यूँ अब हम जब सब बेपरवाह मौला हैं,
की हम अपनी ही परवाह में चले बेसुध से मिलते हैं।

                                  पाया बहुत हमने यहाँ खोना तो फ़ितरत है ,
                                  की चाहतों की दरिया में हमें क्यूँ लोग मिलते हैं।

बहुत भारी पड़ा हमपर हमें लोगों को समझाना,
की ये बातें ही ऐसी हैं जो बस पन्नों में मिलते हैं।

                                   जले दिल का हर एक कोना मेरे अपने ही कृत्यों से,
                                   की अब तो ख़ुद में ही सैकड़ों हैवान पलते हैं।

भला है क्या बुराई को समझना अब नही मुझको ,
की ये आदर्श तो बस अपने ही मतलब में मिलते हैं।
                                 
                                   नहीं रोको मुझे अब बात दिल की कह ही लेने दो ,
                                   की इन हाथों में क़लम भी कभी विरले ही मिलते हैं।।

मेरे दर्द के उस तार को तुम यूँ न जगा देना,
की मेरी आँखों से ये आंसू बड़ी मुश्किल से निकलते हैं।।



द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - २८ . १० . २०१६






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