।। Negotiation with the Sun ।।
है लाल लपट, है ज्वलित पटल
किस बात की तुम्हे रुखाई है ?
हे अर्क! अनल के तुम स्वामी
चहु ओर जो आग लगाई है।।
जलते लावा-सी लपट भरी
अब सुबह लगे सम दोपहरी
घन का पहरा भी हार गया
ना देखा तुमसा प्रबल अरि
दिन में तो तुम्हारी ही जय है
अब रात भी तुमने जलायी है
हे अर्क! अनल के तुम स्वामी
चहु ओर जो आग लगाई है।।
घन को तरसे जो कब बरसे ?
ये छुपा-छुपा सा है डरसे
है लाख कोशिशें करे भला
ना पार कोई तेरे पर से
जो छुप के वॉर करे तुमपर
तुमने घन-नीर सुखाई है
हे अर्क! अनल के तुम स्वामी
चहु ओर जो आग लगाई है।।
जलते रहना चलते रहना
औरों को जलाना ठीक नहीं
अपने हिय में संताप जो हो
तो वाह्य दिखाना ठीक नहीं
मैं ले आऊं तेरी खातिर
इस आग की कोई दवाई है ?
हे अर्क! अनल के तुम स्वामी
चहु ओर जो आग लगाई है।।
जो ज्ञात मुझे हो क्या तप है
जो आत्म-ग्लानि में जला रहे
शीतल छाहों को त्याग कहीं
तुम ज्वाल की लपटें बहा रहे
क्या रजनी के संग हुई तेरी
बातों-बातों में लड़ाई है
हे अर्क! अनल के तुम स्वामी
चहु ओर जो आग लगाई है।।
द्वारा- अविलाष कुमार पाण्डेय
दिनाँक - २६.०६.२०२०
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