Saturday 23 July 2016

।। मै प्रेम - पथिक बस चल निकला ।।

मैं जड़ सुमेरु -सा अडिग अचल, प्रस्तर - सम  मेरा ह्रदय हुआ

जब बात विछोह की तूने कही, मन मेरा व्याधित - विकल हुआ

अब बरसूँ या तब बरसूँ मैं, मेरा मर्म कहूं मैं किसे भला

सारे जग से ही विरक्त कहीं, मैं राह में ऐसे हूँ निकला ।।


आ चल तू मेरे साथ चलें, उस दूर क्षितिज पे चल निकलें

जहाँ तेरी - मेरी डगर मिले, उस चौराहे पे फिर से मिलें

कुछ बात करेंगे मिल करके, ख़ामोशी- सी यूँ पिरोयी है

तेरी मधुर ध्वनि इन कर्णो में जाने कबसे न संजोयी है

हे हमराही ! पहचान मेरी, मैं तेरी धुन में बस फिसला

इस राह की कोई डगर नही, मै प्रेम - पथिक बस चल निकला ।।  


जब चलना तुझ संग जीवन है, पग थमे नही फिर कभी कहीं

जब राह रुके आगे जाकर, तो जीवन रेखा थमे वहीं

कुछ बात है तुझ संग चलने मे, जीवन की गति रूकती ही नही

तू हाथ पकड़ कर चले जहाँ, मैं खींचता जाऊँ वहीं - वहीं

तुझ सम पथ - निर्देशक पाकर, मैं प्रेम - डगर पे चल निकला

जीवन गाड़ी - सम दौड़ पड़ी, इस मार्ग में मुझको तू जो मिला ।।       


हे साथी ! पथ के राह मेरी, ज़रा झंझातो से जाती है

कुछ सँकरी गलियों से मुड़कर, फिर अपनी राह बनाती है

कुछ कोन पर्वतों के लाँघो, फिर नदियाँ बहती जाती हैं

फिर सागर से एक कुण्ड में ये, झर् - झर् करके गिर जाती है

विचलित ना होऊँ मार्ग में मैं, तू धैर्य बंधाता चल निकला

है मार्ग कठिन जो जीवन की, फिर भी मैं तुझ संग बढ़ता चला ।।     



चल मुझमें कुछ साहस भर दे, और धैर्य की तू भी दंभ लगा

चल देंगे दोनों फिर संग में, वो आगे पर्वत बुला रहा

सँकरी गलियों की तीव्र हवा, हू - हू करके दें ह्रदय कपा

नदियों की झर् - झर् मधुर ध्वनि से, राह की अटकल दूर भगा

ये राह ही मंजिल जायेगी, अब चल तू हाथ  में हाथ मिला

नदियाँ उफनी पर्वत लाँघा, मैं कर्म - पथिक बस चले चला ।।




द्वारा - अविलाष कुमार पाण्डेय 

दिनाँक - २३. ०७ . २०१६ 




                                    

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